Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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आभ्यन्तर स्वरूप हो कर भी एक दूसरे के असर से खाली नहीं । प्रधान परिणाम या ब्रह्म परिणाम वाद से इस वाद में फर्क यह है कि इसमें उक्त दोनों वादों की तरह किसी भी स्थायी द्रव्य का अस्तित्व नहीं माना जाता । ऐसा शंकु या कीलक स्थानीय स्थायी द्रव्य न होते हुए भी पूर्व परिणामक्षण का यह स्वभाव है कि वह नष्ट होते होते दुसरे परिणाम-क्षण को पैदा करता ही जायगा। अर्थात् उत्तर परिणाम-क्षण विनाशोन्मुख पूर्व परिणाम के अस्तित्वमात्र के आश्रय से आप ही आप निराधार उत्पन्न हो जाता है। इसी मान्यता के कारण यह प्रतीत्यसमुत्पादवाद कहलाता है। वस्तुतः प्रतीत्यसमुत्पादवाद परमाणुवाद भी है और परिणामवाद भी । फिर भी तात्त्विक रूप में वह दोनों से भिन्न है।.
४ विवर्तवाद-विवर्तवाद के मुख्य दो भेद हैं ( अ ) नित्यब्रह्मविवर्त और (ब) क्षणिकविज्ञानविवर्त । दोनों विवर्तवाद के अनुसार स्थूल विश्व यह निरा भासमात्र या कल्पनामात्र है, जो माया या वासनाजनित है। विवर्तवाद का अभिप्राय यह है कि जगत् या विश्व कोई ऐसी वस्तु नहीं हो सकती जिसमें बाह्य और आन्तरिक या स्थूल और सूक्ष्म तत्त्व अलग अलग और खण्डित हों। विश्व में जो कुछ वास्तविक सत्य हो सकता है वह एक ही हो सकता है क्योंकि विश्व वस्तुतः अखण्ड और अविभाज्य ही है। ऐसी दशा में जो बाह्यत्व-आन्तरत्व, हस्वत्व-दीर्घत्व, दुरत्व-समीपत्व आदि धर्मद्वन्द्व मालूम होते हैं वे मात्र काल्पनिक हैं। अतएव इस वाद के अनुसार लोकसिद्ध स्थूल विश्व केवल काल्पनिक
और प्रातिभासिक सत्य है। पारमार्थिक सत्य उसकी तह में निहित है जो विशुद्ध ध्यानगम्य होने के कारण अपने असली स्वरूप में प्राकृत जनों के द्वारा ग्राह्य नहीं ।
न्याय-वैशेषिक और पूर्व मीमांसक आरंभवादी हैं । प्रधानपरिणामवाद सांख्य-योग और चरक का है। ब्रह्मपरिणामवाद के समर्थक भर्तृप्रपञ्च आदि प्राचीन वेदान्ती और आधुनिक वल्लभाचार्य हैं। प्रतीत्यसमुत्पादवाद बौद्धों का है और विवर्तवाद के समर्थक शाङ्कर वेदान्ती, विज्ञानवादी और शून्यवादी हैं। ____ ऊपर जिन वादोंका वर्णन किया है उनके उपादानरूप विचारोंका ऐतिहासिक क्रम संभवतः ऐसा जान पड़ता है-शुरू में वास्तविक कार्यकारणभाव की खोज जड़ जगत तक ही रही। वहीं तक वह परिमित रहा । क्रमशः स्थूल के उस पार चेतन तत्त्व की शोध-कल्पना होते ही दृश्य और जड़ जगत में प्रथम से ही सिद्ध उस कार्यकारणभाव की परिणामिनित्यता रूप से चेतन तत्त्व तक पहुँच हुई। चेतन भी जड़ की तरह अगर परिणामिनित्य हो तो फिर दोनों में अन्तर ही क्या रहा ? इस प्रश्न ने फिर चेतन को कायम रख कर उसमें कूटस्थ नित्यता मानने की ओर तथा परिणामिनित्यता या कार्यकारणभाव को जड जगत तक ही परिमित रखने की ओर विचारकों को प्रेरित किया। चेतन में मानी जानेवाली कूटस्थ नित्यता का परीक्षण फिर शुरू हुवा। जिसमें से अन्ततोगत्वा केवल कूटस्थ नित्यता ही नहीं बल्कि जडगत परिणामिनित्यता भी लुप्त होकर मात्र परिणमन धारा ही शेष रही। इस प्रकार एक तरफ आत्यन्तिक विश्लेषण ने मात्र परिणाम या क्षणिकत्व विचार को जन्म दिया
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