Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का स्थान इसलिये वे भी द्रव्यार्थिक ही माने गए हैं । अलबना वे संग्रह की तरह शुद्ध न होकर अशुद्धमिश्रित ही द्रव्यार्थिक हैं।
पर्याय अर्थात् विशेष, व्यावृत्ति या भेद को ही लक्ष्य करके प्रवृत्त होने वाला विचारपथ पर्यायार्थिक नय है। ऋजुसूत्र आदि बाकी के चारों नय पर्यायार्थिक ही माने गये हैं। अभेद को छोड़कर मात्र भेद का विचार ऋजुसूत्र से शुरू होता है इसलिये उसीको शास्त्र में पर्यायार्थिक नय की प्रकृति या मूल आधार कहा है। पिछले शब्दादि तीन नय उसी मूल मृत पर्यायार्थिक के एक प्रकार से विस्तारमात्र हैं।
मात्र ज्ञान को उपयोगी मानकर उसके आश्रय से प्रवृत्त विचार धारा ज्ञाननय है तो मात्र क्रिया के आश्रय से प्रवृत्त विचार धारा क्रियानय है । नयरूप आधार-स्तम्भों के अपरिमित होने के कारण विश्व का पूर्णदर्शन-अनेकान्त भी निस्सीम है।
भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं, दृष्टिकोणों या मनोवृत्तियों से जो एक ही तत्त्व के नाना दर्शन फलित होते हैं उन्हींके आधार पर भगवाद की सृष्टि खड़ी होती है। जिन दो दर्शनों के विषय ठीक एक दुसरे के बिलकुल विरोधी पड़ते हों ऐसे दर्शनों का समन्वय बतलाने की दृष्टि से उनके विषयभूत भाव-अभावात्मक दोनों अंशों को लेकर उन पर जो संभवित वाक्यमा बनाये जाते हैं वही सप्तभङ्गी है । सप्तभङ्गी का आधार नयवाद है । और उसका ध्येय तो समन्वय अर्थात् अनेकान्त कोटि का व्यापक दर्शन कराना है। जैसे किसी भी प्रमाण से जाने हुए पदार्थ का बोध दूसरे को कराने के लिए परार्थ अनुमान अर्थात् अनुमान वाक्य की रचना की जाती है। वैसे ही विरुद्ध अंशों का समन्वय श्रोता को समझाने की दृष्टि से भज-वाक्य की रचना भी की जाती है। इस तरह नयवाद और भगवाद अनेकान्तहष्टि के क्षेत्र में आप ही आप फलित हो जाते हैं।
यह ठीक है कि वैदिक परंपरा के न्याय, वेदान्त आदि दर्शनों में तथा बौद्ध दर्शन में किसी एक वस्तु का विविध दृष्टिओं से निरूपण की पद्धति तथा अनेक पक्षोंके समन्वय की दृष्टि' भी देखी जाती है फिर भी प्रत्येक वस्तु और उसके प्रत्येक पहलू पर संभवित समग्र दृष्टिबिन्दुओं से विचार करने का आत्यन्तिक आग्रह तथा उन समग्र दृष्टिबिन्दुओं के एक मात्र समन्वय में ही विचार की परिपूर्णता मानने का दृढ आग्रह जैन परंपरा के सिवाय अन्यत्र कहीं देखा नहीं जाता । इसी आग्रह में से जैन तार्किकों ने अनेकान्त, नय और सप्तमजी वाद का बिलकुल स्वतन्त्र और व्यवस्थित शास्त्र निर्माण किया जो प्रमाण शास्त्र का एक भाग ही बन गया और जिसकी जोड़ का ऐसा छोटा भी ग्रन्थ इतर परंपराओं में नहीं बना । विभज्यवाद और मध्यम मार्ग होते हुए भी बौद्ध परंपरा किसी भी वस्तु में वास्तविक स्थायी अंश देख न सकी उसे मात्र क्षणभंग ही नजर आया। अनेकान्त शब्दै से ही अनेकान्त
१ उदाहरणार्थ देखो सांख्यप्रवचनभाष्य पृ. २ । सिद्धान्तबिन्दु पृ० ११९ से। वेदान्तसार पृ० २५। तर्कसंग्रहदीपिका पृ० १७५। महावग्ग ६.३१।
२ देखो, टिप्पण' पृ. ६१से ३ न्यायभाष्य २.१.१८
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