Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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प्रमाणमीमांसायाः
[पृ० ३.५० १४पृ०३.६०१ । प्राचार्य के उक्त सभी कथनों से फलित यही होता है कि.वे जैनपरम्परा प्रसिद्ध दर्शन
और बौद्धपरम्परा प्रसिद्ध निर्विकल्पक को एक ही मानते हैं और दर्शन को अनिर्णय रूप होने से प्रमाण नहीं मानते तथा उनका यह अप्रमाणत्व कथन भी तार्किक दृष्टि से है, प्रागम दृष्टि से नहीं, जैसा कि अभयदेव भिन्न सभी जैन तार्किक मानते पाए हैं।
प्रा० हेमचन्द्रोक्त अवग्रह का परिणामिकारणरूप दर्शन ही उपाध्यायजी का नैश्चयिक प्रवग्रह समझना चाहिए।
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पृ० ३. पं० १४. 'स्वनिर्णय'–दार्शनिक क्षेत्र में ज्ञान स्वप्रकाश है, परप्रकाश है या स्व-परप्रकाश है, इन प्रश्नों की बहुत लम्बी और विविधकल्पनापूर्ण चर्चा है। इस विषय में किसका क्या पक्ष है इसका वर्णन करने के पहिले कुछ सामान्य बातें जान लेनी जरूरी हैं 10 जिससे स्वप्रकाशत्व-परप्रकाशत्व का भाव ठीक ठीक समझा जा सके।
१-ज्ञान का स्वभाव प्रत्यक्ष योग्य है। ऐसा सिद्धान्त कुछ लोग मानते हैं जब कि दूसरे कोई इससे बिलकुल विपरीत मानते हैं। वे कहते हैं कि ज्ञान का स्वभाव परोक्ष ही है प्रत्यक्ष नहीं। इस प्रकार प्रत्यक्ष-परोक्षरूप से ज्ञान के स्वभावभेद की कल्पना ही स्वप्रकाशत्व-परप्रकाशत्व की चर्चा का मूलाधार है।
२-स्वप्रकाश शब्द का अर्थ है स्वप्रत्यक्ष अर्थात् अपने आप ही ज्ञान का प्रत्यक्षरूप से भासित होना। परन्तु परप्रकाश शब्द के दो अर्थ हैं जिनमें से पहिला तो परप्रत्यक्ष अर्थात् एक ज्ञान का अन्य ज्ञानव्यक्ति में प्रत्यक्षरूप से भासित होना, दूसरा अर्थ है परानुमेय अर्थात् एक ज्ञान का अन्य ज्ञान में अनुमेयरूपतया भासित होना।
३-स्वप्रत्यक्ष का यह अर्थ नहीं कि कोई ज्ञान स्वप्रत्यक्ष है अत एव उसका अनुमान 20 आदि द्वारा बोध होता ही नहीं पर उसका अर्थ इतना ही है कि जब कोई ज्ञान व्यक्ति पैदा
हुई तब वह स्वाधार प्रमाता को प्रत्यक्ष होती ही है अन्य प्रमातामों के लिये उसकी परोक्षवा ही है तथा स्वाधार प्रमाता के लिये भी वह ज्ञान व्यक्ति यदि वर्तमान नहीं तो परोक्ष ही है। परप्रकाश के परप्रत्यक्ष प्रर्थ के पक्ष में भी यही बात लागू है-अर्थात् वर्तमान झान
व्यक्ति ही स्वाधार प्रमाता के लिये प्रत्यक्ष है, अन्यथा नहीं। 26 विज्ञानवादी बौद्ध ( न्यायबि० १. १०), मीमांसक, प्रभाकरर वेदान्तरे और जैन के
स्वप्रकाशवादी हैं। ये सब ज्ञान के स्वरूप के विषय में एक मत नहीं। क्योंकि विज्ञानवाद
। १ “यत्त्वनुभूतेः स्वयंप्रकाशत्वमुक्तं तद्विषयप्रकाशनवेलायां ज्ञातुरात्मनस्तथैव न तु सर्वेषां सर्वदा तथैवति नियमाऽस्ति. परानुभवस्य हानापादानादिलिङ्गकानुमानज्ञानविषयत्वात् स्वानुभवस्याप्यतीतस्याशासिषमिति ज्ञानविषयत्वदर्शनाच्च ।"-श्रीभाष्य पृ० २४।।
- २ "सर्वविज्ञानहेतूत्था मितौ मातरि च प्रमा। साक्षात्कर्तृत्वसामान्यात् प्रत्यक्षत्वेन सम्मता ॥"प्रकरणप० पृ०५६। ।
३ भामती पृ० १६। "सेयं स्वयं प्रकाशानुभूतिः"-श्रीभाष्य पृ० १८ । चित्सुखी पृ०६।
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