Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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प्रमाणमीमांसायाः
[ पृ० ८. पं० २६
निर्विकल्पक - उभय संभवित जान पड़ता है । यहाँ संभवित शब्द का प्रयोग इसलिये किया है कि भासर्वज्ञ ( न्यायसार पृ० ४) जैसे प्रबल नैयायिक ने उक्तरूप से द्विविध योगिप्रत्यक्ष का स्पष्ट ही कथन किया है फिर भी कयादसूत्र और प्रशस्तपादभाष्य आदि प्राचीन प्रन्थों में ऐसा कोई स्पष्ट निर्देश नहीं। जैन परम्परा के अनुसार प्रलौकिक या परमार्थिक 5 प्रत्यक्ष उभयरूप है । क्योंकि जैन दर्शन में जो अवधिदर्शन तथा केवलदर्शन नामक सामान्यबोध माना जाता है वह प्रलौकिक निर्विकल्पक ही है। और जो अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान तथा केवलज्ञानरूप विशेषबोध है वही सविकल्पक है ।
३ प्रत्यक्षत्व का नियामक प्रश्न है कि प्रत्यक्षत्व को नियामक तत्व क्या जिसके कारण कोई भी बोध या ज्ञान प्रत्यक्ष कहा जाता है ? इसका जवाब भी दर्शनों में 10 एकविध नहीं । नव्य शाङ्कर वेदान्त के अनुसार प्रत्यक्षत्व का नियामक है प्रमाणचैतन्य और विषयचैतन्य का अभेद जैसा कि वेदान्तपरिभाषा ( पृ० २३ ) में सविस्तर वर्णित है । न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, बौद्ध, मीमांसक दर्शन के अनुसार प्रत्यक्षत्व का नियामक है सन्निकर्षजन्यत्व, जो सन्निकर्ष से, चाहे वह सन्निकर्ष लौकिक हो या अलौकिक, अन्य है, वह सब प्रत्यक्ष | जैन दर्शन में प्रत्यक्ष के नियामक दो तत्व हैं । श्रागमिक परम्परा के अनु15 सार तो एक मात्र प्रात्ममात्र सापेक्षत्व ही प्रत्यक्षत्व का नियामक ( सर्वार्थ १. १२ ) है । अलावा इन्द्रियमनेाजन्यत्व भी प्रत्यक्षत्व का वस्तुत: जैनतार्किक परम्परा न्याय-वैशेषिक
जब कि तार्किक परम्परा के अनुसार उसके नियामक फलित होता है-प्रमाणमी० १.२० ॥ आदि वैदिक दर्शनानुसारिणी ही है ।
४ प्रत्यक्षत्व का क्षेत्र - प्रत्यक्षत्व केवल निर्विकल्पक में ही मर्यादित है या वह 20 सविकल्पक में भी है ? । इसके जवाब में बौद्ध का कथन है कि वह मात्र निर्विकल्पक में मर्यादित है। जब कि बौद्ध भिन्न सभी दर्शनों का मन्तव्य निर्विकल्पक सविकल्पक दोनों में प्रत्यक्षत्व के स्वीकार का है।
५ जन्य - नित्यसाधारण प्रत्यक्ष-अभी तक जन्यमात्र को लक्ष्य मानकर लक्षण की चर्चा हुई पर मध्ययुग में जब कि ईश्वर का जगत्कर्तृ रूप से या वेदप्रणेतृ रूप से न्याय-वैशे25 षिकादि दर्शने में स्पष्ट स्थान निर्यात हुआ तभी से ईश्वरीय प्रत्यक्ष नित्य माने जाने के कारण जन्य - नित्य उभय साधारण प्रत्यक्ष लक्षण बनाने का प्रश्न ईश्वरवादियों के सामने आया । जान पड़ता है ऐसे साधारण लक्षण का प्रयत्न भासर्वज्ञ ने सर्वप्रथम किया। उसने 'सम्यगपरोक्षानुभव' ( न्यायसार पृ० २ ) को प्रत्यक्ष प्रमा कहकर जन्य- नित्य उभय प्रत्यक्ष का एक ही लक्षणा बनाया। शालिकनाथ जो प्रभाकर का अनुगामी है उसने भी 'साचात्प्रतीति' 30 ( प्रकरणप० पृ० ५१) को प्रत्यक्ष कहकर दूसरे शब्दों में बाह्यविषयक इन्द्रियजन्य तथा प्रास्मा
और ज्ञानग्राही इन्द्रियाजन्य ऐसे द्विविध प्रत्यक्ष ( प्रकरण प० पृ० ५१ ) से साधारण लक्षण का प्रणयन किया । पर आगे जाकर नव्य नैयायिकों ने भासर्वज्ञ के अपरोक्ष पद तथा शालिकनाथ के साक्षात्प्रतीति पद का 'ज्ञानाकरणकज्ञान' को जम्य-नित्य साधारण प्रत्यक्ष कहकर
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