________________
प्रमाणमीमांसायाः
[ पृ० ३८ पं० २२
पृ० ३८. पं० २२. 'साधनात् — अनुमान शब्द के अनुमिति और अनुमितिकरण ऐसे दो अर्थ हैं । जब अनुमान शब्द भाववाची हो तब अनुमिति और जब करणवाची हो तब अनुमितिकरण अर्थ निकलता है ।
१३८
अनुमान शब्द में अनु और मान ऐसे दो अंश हैं। 1 अनु का अर्थ है पश्चात् और 5 मान का अर्थ है ज्ञान अर्थात् जो ज्ञान किसी अन्य ज्ञान के बाद ही होता है वह अनुमान | परन्तु वह अन्य ज्ञान खास ज्ञान ही विवक्षित है, जो अनुमिति का कारण होता है । उस खास ज्ञान रूप से व्याप्तिज्ञान — जिसे लिङ्गपरामर्श भी कहते हैं- इष्ट है। प्रत्यक्ष और अनुमान ज्ञान में मुख्य एक अन्तर यह भी है कि प्रत्यक्ष ज्ञान नियम से ज्ञानकारणक नहीं होता, जब कि अनुमान नियम से ज्ञानकारणक ही होता है । यही भाव अनुमान शब्द में मौजूद 10 'अनु' अंश के द्वारा सूचित किया गया है 1 यद्यपि प्रत्यक्षभिन्न दूसरे भी ऐसे ज्ञान हैं जो
अनुमान कोटि में न गिने जाने पर भी नियम से ज्ञानजन्य ही हैं, जैसे उपमान, शाब्द, अर्थापत्ति आदि; तथापि दर असल में जैसा कि वैशेषिक दर्शन तथा बौद्ध दर्शन में माना गया हैप्रमाण के प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो ही प्रकार हैं। किसी तरह अनुमान प्रमाण में समाये जा सकते हैं 15 ने समाया भी है।
बाकी के सब प्रमाण किसी न जैसा कि उक्त द्विप्रमाणवादिदर्शनों
25
अनुमान किसी भी विषय का हो, वह किसी भी प्रकार के हेतु से जन्य क्यों न हो पर इतना तो निश्चित है कि अनुमान के मूल में कहीं न कहीं प्रत्यक्ष ज्ञान का अस्तित्व अवश्य होता है । मूल में कहीं भी प्रत्यक्ष न हो ऐसा अनुमान हो ही नहीं सकता । जब कि प्रत्यक्ष अपनी उत्पत्ति में अनुमान की अपेक्षा कदापि नहीं रखता तब अनुमान अपनी उत्पत्ति 20 में प्रत्यक्ष की अपेक्षा अवश्य रखता है । यही भाव 'तत्पूर्वकम् ' ( १. १. ५ ) शब्द से ऋषि ने व्यक्त किया है,
न्यायसूत्रगत अनुमान के लक्षण में ? जिसका अनुसरण सांख्यकारिका.
( का०५ ) आदि के अनुमान लक्षण में भी देखा जाता 1
अनुमान के स्वरूप और प्रकार निरूपण आदि का जो दार्शनिक विकास हमारे सामने है उसे तीन युगों में विभाजित करके हम ठीक ठीक समझ सकते हैं १ वैदिक युग, २ बौद्ध
युग और ३ नव्यन्याय युग ।
१ - विचार करने से जान पड़ता है कि अनुमान प्रमाण के लक्षण और प्रकार आदि का शास्त्रीय निरूपण वैदिक परंपरा में ही शुरू हुआ और उसी की विविध शाखाओं में विकसित होने लगा । इसका प्रारंभ कब हुआ, कहाँ हुआ, किसने किया, इसके प्राथमिक विकास ने कितना समय लिया, वह किन किन प्रदेशों में सिद्ध हुआ इत्यादि प्रश्न शायद सदा ही
१ जैसे 'तत्पूर्वक' शब्द प्रत्यक्ष और अनुमान का पौर्वापर्य प्रदर्शित करता है वैसे ही जैन परम्परा मति और श्रुतसंज्ञक दा ज्ञानों का पै'र्वापर्य बतलानेवाला "मइपुब्वं जेण सुयं” ( नन्दी सू० २४ ) यह शब्द है । विशेषा० गा० ६६, १०५, १०६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org