Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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पृ० ३८. पं० २२ ]
. भाषाटिप्पणानि । के किसी किसी तार्किक के लक्षण प्रणयन में बौद्ध लक्षण का भी असर प्रागया? जो जैन ताकिकों के लक्षण प्रणयन में तो बौद्धयुग के प्रारम्भ से ही प्राज तक एकसा चला पाया है ।
३-तीसरा नव्यन्याययुग उपाध्याय गङ्गेश से शुरू होता है। उन्होंने अपने वैदिक पूर्वाचार्यों के अनुमान लक्षण को कायम रख कर भी उसमें सूक्ष्म परिष्कार किया जिसका प्रादर उत्तरवर्ती सभी नव्य नैयायिको ने ही नहीं बल्कि सभी वैदिक दर्शन के परिष्कारकों । ने किया। इस नवीन परिष्कार के समय से भारतवर्ष में. बौद्ध तार्किक करीब करीब नामशेष हो गये। इस लिये बौद्ध ग्रन्थों में इसके स्वीकार या खण्डन के पाये जाने का तो संभव ही नहीं पर जैन परम्परा के बारे में ऐसा नहीं है। जैन परम्परा तो पूर्व की तरह नव्यन्याययुग से आज तक भारतवर्ष में चली प्रारही है और यह भी नहीं कि नव्यन्याययुग के मर्मज्ञ कोई जैन तार्किक हुए भी नहीं। उपाध्याय यशोविजयजी जैसे तत्वचिन्तामणि और आलोक आदि 10 नव्यन्याय के अभ्यासी सूक्ष्मप्रज्ञ तार्किक जैन परम्परा में हुए हैं फिर भी उनके तर्कभाषा जैसे ग्रन्थ में नव्यन्याययुगीन परिष्कृत अनुमान लक्षण का स्वीकार या खण्डन देखा नहीं जाता। उपाध्यायजी ने भी अपने तर्कभाषा जैसे प्रमाण विषयक मुख्य ग्रन्थ में अनुमान का लक्षण वही रखा है जो सभी पूर्ववर्ती श्वेताम्बर दिगम्बर तार्किकों के द्वारा मान्य किया गया है।
15 प्राचार्य हेमचन्द्र ने अनुमान का जो लक्षण किया है वह सिद्धसेन और अकलङ्क आदि प्राक्तन जैन तार्किकों के द्वाग स्थापित और समर्थित हो रहा। इसमें उन्होंने कोई सुधार या न्यनाधिकता नहीं की। फिर भी हेमचन्द्रीय अनुमान निरूपण में एक ध्यान देने योग्य विशेषता है। वह यह कि पूर्ववर्ती सभी जैन तार्किकों ने-जिनमें अभयदेव, वादी देवसूरि आदि श्वेतांबर तार्किकों का भी समावेश होता है-वैदिक परम्परा संमत त्रिविध अनुमान प्रणाली 20 का साटोप खण्डन किया था उसे प्रा० हेमचन्द्र ने छोड़ दिया। यह हम नहीं कह सकते कि हेमचन्द्र ने संक्षेपरुचि की दृष्टि से उस खण्डन को जो पहिले से बराबर जैन ग्रन्थों में चला पा रहा था छोडा, कि पूर्वापर असंगति की दृष्टि से। जो कुछ हो, पर प्राचार्य हेमचन्द्र के द्वारा वैदिक परम्परा संमत अनुमान त्रैविध्य के खण्डन का परित्याग होने से, जो जैन प्रन्थों में खास कर श्वेतांबरीय ग्रन्थों में एक प्रकार की असंगति आगई थो वह दूर हो गई। इसका 25 श्रेय प्राचार्य हेमचन्द्र को ही है।
असंगति यह थी कि आर्यरक्षित जैसे पूर्वधर समझे जाने वाले आगमधर जैन प्राचार्य ने न्याय संमत अनुमानत्रैविध्य का बड़े विस्तार से स्वीकार और समर्थन किया था जिसका उन्हीं के उत्तराधिकारी अभयदेवादि श्वेतांबर तार्किकों ने सावेश खण्डन किया था।
१ "सम्यगविनाभावेन परोक्षानुभवसाधनमनुमानम्”-न्यायसार पृ०५। । २ न्याया०५। न्यायवि०२.१। प्रमाणप० पृ०७०। परी० ३. १४ ।
३ "अतीतानागतधूमादिज्ञानेऽप्यनुमितिदर्शनान्न लिङ्ग तद्धेतुः व्यापारपूर्ववर्तितयारभावात्.. किन्तु व्याप्तिज्ञानं करण परामर्शो व्यापार:"- तत्त्वचि० परामर्श पृ० ५३६.५० ।
४ सन्मतिटी० पृ० ५५६ । स्याद्वादर० पृ० ५२७ ।
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