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पृ०६.५० २६] भाषाटिप्पणानि ।
१३३ १ लौकिकालौकिकता-प्राचीन समय में लक्ष्यकोटि में जन्यमात्र ही निविष्ट था फिर भी चार्वाक के सिवाय सभी दर्शनकारों ने जन्य प्रत्यक्ष के लौकिक अलौकिक ऐसे दो प्रकार माने हैं। सभी ने इन्द्रियजन्य और मनोमात्रजन्य वर्तमान संबद्ध-विषयक ज्ञान को लौकिक प्रत्यक्ष कहा है। अलौकिक प्रत्यक्ष का वर्णन भिन्न भिन्न दर्शनों में भिन्न भिन्न नाम से है। सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक,२ बौद्ध सभी अलौकिक प्रत्यक्ष का योगि-5 प्रत्यक्ष या योगि-ज्ञान नाम से निरूपण करते हैं जो योगजन्य सामर्थ्य द्वारा जनित माना जाता है। - मीमांसक जो सर्वज्ञत्व का खासकर धर्माधर्मसाक्षात्कार का एकान्त विरोधी है वह ' भी मोक्षाङ्गभूत एक प्रकार के आत्मज्ञान का अस्तित्व मानता है जो वस्तुतः योगजन्य या अलौकिक ही है।
10 वेदान्त में जो ईश्वरसाक्षीचैतन्य है वही अलौकिक प्रत्यक्ष स्थानीय है। .. जैन दर्शन की प्रागमिक परम्परा ऐसे प्रत्यक्ष को ही प्रत्यक्ष कहती है। क्योंकि उस . परम्परा के अनुसार प्रत्यक्ष केवल वही माना जाता है जो इन्द्रिय जन्य न हो। उस परम्परा के अनुसार तो दर्शनान्तरसंमत लौकिकप्रत्यक्ष प्रत्यक्ष नहीं पर परोक्ष है६ फिर भी जैन दर्शन की तार्किक परम्परा प्रत्यक्ष के दो प्रकार मानकर एक को जिसे दर्शनान्तरों में लौकिक 15 प्रत्यक्ष कहा है सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहती है और दूसरे को जो दर्शनान्तरों में अलौकिक प्रत्यक्ष कहा जाता है पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहती है। तथा पारमार्थिक प्रत्यक्ष के कारणरूप से लब्धि या विशिष्ट प्रात्मशक्ति का वर्णन करती है, जो एक प्रकार से जैन परिभाषा में योगज धर्म ही है। - - ......
२ अलौकिक में निर्विकल्पक का स्थान-अब प्रश्न यह है कि अलौकिक प्रत्यक्ष 20 निर्विकल्पक ही होता है या सविकल्पक ही होता है, या उभयरूप १। इसके उत्तर में एकवाक्यता नहीं। तार्किक बौद्ध और शाङ्कर वेदान्तः परम्परा के अनुसार तो अलौकिक प्रत्यक्ष निर्विकल्प ही संभवित है सविकल्पक कभी नहीं। रामानुज का मत इससे बिलकुल उलटा है, तदनुसार लौकिक हो या अलौकिक कोई भी प्रत्यक्ष सर्वथा निर्विकल्पक संभव ही नहीं पर न्याय वैशेषिक प्रादि अन्य वैदिक दर्शन के अनुसार अलौकिक प्रत्यक्ष सविकल्पक 25
१ योगसू० ३.५४ । सांख्यका०६४। २ वैशे० ६.१. १३-१५। . ३ न्यायबि० १.११।
.४ "सर्वत्रैव हि विज्ञानं संस्कारत्वेन गम्यते। पराङ्ग चात्मविज्ञानादन्यत्रेत्यवधाmran" तन्त्रवा० पृ०२४०।।
५ तत्त्वार्थ० १.१२। ६ तस्वार्थ० १.११। ७टिप्पण पृ०२२।। & Indian Psychology : Perception. P. 352. & "अतः प्रत्यक्षस्य कदाचिदपि न निर्विशेषविषयत्वम्"-श्री भाष्य पू०२१॥
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