________________
पृ० २१. पं० २२]
भाषाटिप्पयामि। नन्य परिभाषा में स्पष्टीकरण किया ( मुक्ता० ५२)। इधर जैनदर्शन के तार्किकों में भी. साधारणलक्षणप्रणयन का प्रश्न उपस्थित हुआ जान पड़ता है। जैन दर्शन नित्यप्रत्यक्ष तो मानता ही नहीं प्रतएव उसके सामने जन्य-नित्यसाधारण लक्षण का प्रश्न न था। पर साम्यवहारिक, पारमार्थिक उभयविध प्रत्यक्ष के साधारण लक्षण का प्रश्न था। जान पड़ता है इसका जवाब सर्व प्रथम सिद्धसेन दिवाकर ने ही दिया। उन्होंने अपरोक्षरूप । ज्ञान को प्रत्यक्ष कहकर सांव्यवहारिक-पारमार्थिक उभयसाधारण अपरोक्षत्व को. लक्षण बनाया । न्याया० ४) यह नहीं कहा जा सकता कि सिद्धसेन के 'अपरोक्ष पद के प्रयोग का प्रभाव भासर्वज्ञ के लक्षण में है या नहीं ?। पर इतना तो निश्चित ही है कि जैन परम्परा में अपरोक्षस्वरूप से साधारण लक्षण का प्रारंभ सिद्धसेन ने ही किया।
६ दोष का निवारण-सिद्धसेन ने अपरोक्षत्व को प्रत्यक्ष मात्र का साधारण लक्षण 10 बनाया। पर उसमें एक त्रुटि है जो किसी भी सूक्ष्मप्रज्ञ तार्किक से छिपी रह नहीं सकती। वह यह है कि अगर प्रत्यक्ष का लक्षण अपरोक्ष है तो परोक्ष का लक्षण क्या होगा। अगर यह कहा जाय कि परोक्ष का लक्षण प्रत्यक्षभिन्नत्व या अप्रत्यक्षस्व है तो इसमें स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय है। जान पड़ता है इस दोष को दूर करने का तथा अपरोक्षत्व के स्वरूप को स्फुट करने का प्रयत्न सर्व प्रथम भट्टारक अकलङ्क ने किया। उन्होंने बहुत ही प्राञ्जल 15 शब्दों में कह दिया कि जो ज्ञान विशद है वही प्रत्यक्ष है-लघी० १. ३ । उन्होंने इस वाक्य में साधारण लक्षण तो गर्भित किया ही पर साथ ही उक्त अन्योन्याश्रय दोष को भी. टाल दिया। क्योंकि अब अपरोक्षपद ही निकल गया, जो परोक्षत्व के निर्वचन की अपेक्षा रखता था। प्रकलङ्क की लाक्षणिकता ने केवल इतना ही नहीं किया पर साथ ही वैशद्य का स्फोट भी कर दिया। वह स्फोट भी ऐसा कि जिससे सांव्यवहारिक पारमार्थिक दोनों 20 प्रत्यक्ष का संग्रह हो। उन्होंने कहा कि अनुमानादि की अपेक्षा विशेष प्रतिभास करना ही वैशय है-लघी० १.४ । प्रकलङ्क का यह साधारण लक्षण का प्रयत्न और स्फोट ही उत्तरवर्ती समी श्वेताम्बर-दिगम्बर तार्किकों के प्रत्यक्ष लक्षण में प्रतिबिम्बित हुआ। किसी ने विशद पद के स्थान में स्पष्ट' पद (प्रमाणन० २.२) रखा तो किसी ने उसी पद को ही रखा-परी २. ३ ।
प्रा० हेमचन्द्र जैसे अनेक स्थलों में प्रकलङ्कानुगामी हैं वैसे ही प्रत्यक्ष के लक्षण के 25 बारे में भी प्रकलङ्क के ही अनुगामी हैं। यहां तक कि उन्होंने तो विशद पद और वैशद्य का विवरण प्रकलङ्क के समान ही रखा। अकलङ्क की परिभाषा इतनी दृढमूल हो गई कि अन्तिम तार्किक उपाध्याय यशोविजयजी ने भी प्रत्यक्ष के लक्षण में उसीका आश्रय कियातर्कभाषा० पृ० १ ।
पृ० २१. पं० २२ 'प्रतिसंख्यानेन'–प्रतिसंख्यान शब्द बौद्ध परम्परा में जिस अर्थ में 30 प्रसिद्ध है उसी अर्थ में प्रसंख्यान शब्द न्याय, याम मादि दर्शनी में प्रसिद्ध है- न्यायभा० ४. २.२। योगसू० ४. २६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org