Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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प्रमाणमीमांसायाः .
[पृ० २. पं० २०"तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितम् । .. अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ॥" यह श्लोक कुमारिलकत्तक माना जाता है। इसमें दो बातें खास ध्यान देने की हैं. १-लक्षण में अनधिगतबोधक 'अपूर्व' पद का अर्थविशेषण रूप से प्रवेश । ५.२-स्व-परप्रकाशत्व की सूचना का अभाव ।
बौद्ध परम्परा में दिङ्नाग ने प्रमाणसामान्य के लक्षण में 'स्वसंवित्ति' पद का फल के विशेषणरूप से निवेश किया है। धर्मकीर्तिर के प्रमाणवार्त्तिकवाले लक्षण में वात्स्यायन के 'प्रवृत्तिसामर्थ्य का सूचक तथा कुमारिल आदि के निर्बाधत्व का पर्याय 'अविसंवादित्वा
विशेषणं देखा जाता है और उनके न्यायबिन्दुवाले लक्षण में दिङ्नाग के अर्थसारूप्य का 10 ही निर्देश है ( न्यायबि० १. २०.)। शान्तरक्षित के लक्षण में दिङ्नाग और धर्मकीर्ति दोनों के प्राशय का संग्रह देखा जाता है
"विषयाधिगतिश्चात्र प्रमाणफलमिष्यते ।
स्ववित्तिा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा ॥"-तत्त्वसं ० का० १३४४.
इसमें भी दो बातें खास ध्यान देने की हैं15 १-अभी तक अन्य परम्पराओं में स्थान नहीं प्राप्त 'स्वसंवेदन विचार का प्रवेश
और तद्वारा ज्ञानसामान्य में स्व-परप्रकाशत्व की सूचना । _ प्रसङ्ग और वसुबन्धु ने विज्ञानवाद स्थापित किया। पर दिङ नाग ने उसका समर्थन बड़े ज़ोरों से किया। उस विज्ञानवाद की स्थापना और समर्थनपद्धति में ही स्वसंविदितत्व या
स्वप्रकाशत्व का सिद्धान्त स्फुटतर हुआ जिसका एक या दूसरे रूप में अन्य दार्शनिकों पर 20 भी प्रभाव पड़ा-देखो Buddhist Logic vol. I. P. 12.
२-मीमांसक की तरह स्पष्ट रूप से 'अनधिगतार्थक ज्ञान' का ही प्रामाण्य ।
श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों जैन परम्पराओं के प्रथम तार्किक सिद्धसेन और समन्तभद्र ने अपने अपने लक्षण में स्व-परप्रकाशार्थक 'स्व-परावभासक' विशेषण का समान रूप से निवेश किया है। सिद्धसेन के लक्षण में 'बाधविवर्जित' पद उसी अर्थ में है जिस अर्थ में मीमांसक 25 का 'बाधवर्जित' या धर्मकीर्ति का 'अविसंवादि' पद है। जैन न्याय के प्रस्थापक अकलंक
१ "स्वसंवित्तिः फलं चात्र तद्पादर्थनिश्चयः। विषयाकार एवास्य प्रमाणं तेन मीयते ॥"प्रमाणस०१.१०.
२ "प्रमाणमविसंवादि ज्ञानमर्थक्रियास्थिति:। अविसंवादनं शाब्देप्यभिप्रायनिवेदनात् ॥-प्रमा- । गवा०२.१.
" ३"प्रमाणं स्वपराभासि शान बाधविवर्जितम् ।"-न्याया० १. "तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभास. नम् ।”-प्राप्तमी० १०१. "स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम्”-वृ० स्वयं० ६३. .
४ "प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् , अनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् ।"-अष्टश० अष्टस० पृ० १७५. तदुक्तम्-"सिद्धं यत्न परापेक्ष्यं सिद्धौ स्वपररूपयोः। तत् प्रमाणं ततो नान्यदविकल्पमचेतनम् ।" न्यायवि० टी०लि०पू०३०. उक्त कारिका सिद्धिविनिश्चय की है जो अकलंक की ही कृति है।
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