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प्रमायमीमांसाया:
[पृ०६४.५० २६
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घम
धर्मकीर्ति ने उक्त ब्राह्मण परम्परा के आधार पर ही कुठाराघात करके सत्यमूलक नियम बांध दिया कि कोई छल आदि के प्रयोग से किसी को चुप करा देने मात्र से जीत नहीं सकता। क्योंकि छल आदि का प्रयोग सत्यमूलक न होने से वर्ण्य है । अतएव धर्मकीर्ति के कथनानुसार यह नियम नहीं कि किसी एक का पराजय ही दूसरे का अवश्यम्भावी जय हो। ऐसा भी सम्भव है कि प्रतिवादी का पराजय माना जाय पर वादी का जय न माना जाय-उदाहरणार्थ वादी ने दुष्ट साधन का प्रयोग किया हो, इस पर प्रतिवादी ने सम्भवित दोषों का कथन न करके मिथ्यादोषों का कथन किया, तदनन्तर वादी ने प्रतिवादी के मिथ्यादोषों का उद्भावन किया-ऐसी दशा में प्रतिवादी का पराजय अवश्य माना
जायगा। क्योंकि उसने अपने कर्त्तव्य रूप से यथार्थ दोषों का उद्भावन न करके 10 मिथ्यादोषों का ही कथन किया जिसे वादी ने पकड़ लिया। इतना होने पर भी वादी
का जय नहीं माना जाता क्योंकि वादी ने दुष्ट साधन का ही प्रयोग किया है। जब कि जय के वास्ते वादी का कर्तव्य है कि साधन के यथार्थ ज्ञान द्वारा निर्दोष साधन का हो प्रयोग करे। इस तरह धर्मकीर्ति ने जय-पराजय की ब्राह्मणसम्मत व्यवस्था
में संशोधन किया। पर उन्होंने जो असाधनाङ्गवचन तथा अदोषोदावन द्वारा जय-पराजय 15 की व्यवस्था की इसमें इतनी जटिलता और दुरूहता आ गई कि अनेक प्रसङ्गों
में यह सरलता से निर्णय करना ही असम्भव हो गया कि असाधनाङ्गवचन तथा अदोषो. द्भावन है या नहीं। इस जटिलता और दुरूहता से बचने एवं सरलता से निर्णय करने की दृष्टि से भट्टारक अकलङ्क ने धर्मकीर्त्तिकृत जय-पराजय व्यवस्था का भी संशोधन
किया। प्रकलङ्क के संशोधन में धर्मकीर्ति सम्मत सत्य का तत्त्व तो निहित है ही, 20 पर जान पड़ता है अकलङ्क की दृष्टि में इसके अलावा अहिंसा-समभाव का जैनप्रकृतिसुलभ
भाव भी निहित है। अतएव अकलङ्क ने कह दिया कि किसी एक पक्ष की सिद्धि ही उसका जय है और दूसरे पक्ष की प्रसिद्धि ही उसका पराजय है। प्रकलङ्क का यह सुनिश्चित मत है कि किसी एक पक्ष की सिद्धि दूसरे पक्ष की प्रसिद्धि के बिना हो ही नहीं
१ "तत्त्वरक्षणार्थ सद्भिपहर्त्तव्यमेव छलादि। · विजिगीषुभिरिति चेत् नखचपेटशस्त्रप्रहारादीपनादिभिरपीति वक्तव्यम् । तस्मान्न ज्यायानयं तत्त्वरक्षणोपायः।-वादन्याय पृ०७१ ।
२ "सदोषवत्त्वेऽपि प्रतिवादिनोऽज्ञानात् प्रतिपादनासामर्थ्याद्वा । न हि दुष्टसाधनाभिधानेऽपि वादिनः प्रतिवादिनोऽप्रतिपादिते दोषे पराजयव्यवस्थापना युक्ता। तयोरेव परस्परसामोपघातापेक्षया जयपराजयव्यवस्थापनात् । केवलं हेत्वाभासादभूतप्रतिपत्तरभावादप्रतिपादकस्य जयोऽपि नास्त्येव ।"वादन्याय पृ०७०।
३ "निराकृतावस्थापितविपक्षस्वपक्षयोरेव जयेतरव्यवस्था नान्यथा। तदुक्तम्-स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोऽन्यस्य वादिनः। नासाधनाङ्गवचनं नाऽदोषोद्भावनं द्वयोः ॥"-श्रष्टश० श्रष्टस० पृ०८७। "तत्रेह तात्त्विके वादेऽकलकैः कथितो जयः। स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोऽन्यस्य वादिनः।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ०२८१।
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