Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 284
________________ १२६ प्रमाणमीमांसायाः [पृ० १. पं० १विशेषणसम्बन्ध भासित न हो। उनका कहना है कि प्राथमिकदशापन्न ज्ञान भी किसी न किसी विशेष को, चाहे वह विशेष स्थूल ही क्यों न हो, प्रकाशित करता हो है अतएव ज्ञानमात्र सविकल्पक हैं। निर्विकल्पक का मतलब इतना ही समझना चाहिए कि उसमें इतर ज्ञानों की अपेक्षा विशेष कम भासित होते हैं। ज्ञानमात्र को सविकल्पक माननेवाली उक्त 5 तीन परम्पराओं में भी शाब्दिक परम्परा ही प्राचीन है। सम्भव है भर्तृहरि की उस परम्परा को ही मध्व और वल्लभ ने अपनाया हो। २ लौकिकालौकिकता-निवि कल्प का अस्तित्व माननेवाली सभी दार्शनिक परम्पराएं लौकिक निर्विकल्प अर्थात् इन्द्रियसन्निकर्षजन्य निर्विकल्प को तो मानती हैं ही पर यहाँ प्रश्न है अलौकिक निर्विकल्प के अस्तित्व का। जैन और बौद्ध दोनों परम्पराएं ऐसे भी 10 निवि कल्पक को मानती हैं जो इन्द्रियसन्निकर्ष के सिवाय भी योग या विशिष्टात्मशक्ति से उत्पन्न होता है। बौद्धपरम्परा में ऐसा अलौकिक निर्विकल्पक योगिसंवेदन के नाम से प्रसिद्ध है जब कि जैनपरम्परा में अवधिदर्शन और केवलदर्शन के नाम से प्रसिद्ध है। न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग और पूर्वोत्तरमीमांसक विविध कक्षावाले योगियों का तथा उनके · योगजन्य अलौकिक ज्ञान का अस्तित्व स्वीकार करते हैं अतएव उनके मतानुसार भी अलौकिक . 15 निर्विकल्प का अस्तित्व मान लेने में कुछ बाधक जान नहीं पड़ता। अगर यह धारणा ठीक है तो कहना होगा कि सभी निवि कल्पकास्तित्ववादी सविकल्पक ज्ञान की तरह निवि कल्पक ज्ञान को भी लौकिक-अलौकिकरूप से दो प्रकार का मानते हैं । ३ विषयस्वरूप-सभी निर्विकल्पकवादी सत्तामात्र को निर्विकल्प का विषय मानते हैं पर सत्ता के स्वरूप के बारे में सभी एकमत नहीं। अतएव निर्विकल्पक के ग्राह्य विषय 20 का स्वरूप भी भिन्न-भिन्न दर्शन के अनुसार जुदा-जुदा ही फलित होता है। बौद्धपरम्परा के अनुसार अर्थक्रियाकारित्व ही सत्त्व है और वह भी क्षणिक व्यक्तिमात्र में ही पर्यवसित है जब कि शाङ्कर वेदान्त के अनुसार अखण्ड और सर्वव्यापक ब्रह्म ही सत्त्वस्वरूप है, जो न देशबद्ध है न कालबद्ध । न्याय वैशेषिक और पूर्व मीमांसक के अनुसार अस्तित्व मात्र सत्ता है या जातिरूप सत्ता है जो बौद्ध और वेदान्तसम्मत सत्ता से भिन्न है। सांख्य-योग और जैनपर25 म्परा में सत्ता न तो क्षणिक व्यक्ति मात्र नियत है, न ब्रह्मस्वरूप है और न जातिरूप है। उक्त तीनों परम्पराएँ परिणामिनित्यत्ववादी होने के कारण उनके मतानुसार उत्पाद-व्ययध्रौव्यस्वरूप ही सत्ता फलित होती है। जो कुछ हो, पर इतना तो निर्विवाद है कि सभी निर्विकल्पकवादी निर्विकल्पक के ग्राह्य विषय रूप से सन्मात्र का ही प्रतिपादन करते हैं। ४ मात्र प्रत्यक्षरूप - कोई ज्ञान परोक्षरूप भी होता है और प्रत्यक्षरूप भी जैसे सवि30 कल्पक ज्ञान, पर निर्विकल्पक ज्ञान तो सभी निर्विकल्पकवादियों के द्वारा केवल प्रत्यक्ष. रूप माना गया है। कोई उसकी परोक्षता नहीं मानता, क्योंकि निर्वकल्पक, चाहे लौकिक हो या अलौकिक, पर उसकी उत्पत्ति किसी ज्ञान से व्यवहित न होने के कारण वह साक्षातरूप होने से प्रत्यक्ष ही है। परन्तु जैनपरम्परा के अनुसार दर्शन की गणना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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