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पृ० ४ पं० १६. ]
भाषाटिपणानि ।
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जैन तर्कप्रन्थों में ' धारावाहिक' ज्ञानों के प्रामाण्यं प्रप्रामाण्य के विषय में दो परम्पराएँ हैं - दिगम्बरीय और श्वेताम्बरीय । दिगम्बर परम्परा के अनुसार ' धारावाहिक' ज्ञान तभी प्रमाण हैं जब वे क्षणभेदादि विशेष का भान करते हों और विशिष्टप्रमाजनक होते हों । जब वे ऐसा न करते हों तब प्रमाण नहीं हैं। इसी तरह उस परम्परा के अनुसार यह भी समझना चाहिए कि विशिष्टप्रमाजनक होते हुए भी 'धारावाहिक' ज्ञान जिस द्रव्यांश में 5 विशिष्टप्रमाजनक नहीं हैं उस अंश में वे अप्रमाण और विशेषांश में विशिष्टप्रमाजनक होने के कारण प्रमाण हैं अर्थात् एक ज्ञान व्यक्ति में भी विषय भेद की अपेक्षा से प्रामाण्याप्रामाण्य है । अकलङ्क के अनुगामी विद्यानन्द और माणिक्यनन्दी के अनुगामी प्रभाचन्द्र के टीकाप्रन्थों का पूर्वापर अवलोकन उक्त नतीजे पर पहुँचाता है । क्योंकि अन्य सभी जैनाचार्यों की तरह निर्विवाद रूप 'स्मृतिप्रामाण्य' का समर्थन करनेवाले अकलङ्क और 10 माणिक्यनन्दी अपने-अपने प्रमाण लक्षण में जब बौद्ध और मीमांसक के समान 'अनधिगत' और 'अपूर्व' पद रखते हैं तब उन पदों की सार्थकता उक्त तात्पर्य के सिवाय और किसी प्रकार से बतलाई ही नहीं जा सकती चाहे विद्यानन्द और प्रभाचन्द्र का स्वतन्त्र मत कुछ भी रहा हो ।
बौद्ध २ विद्वान् विकल्प और स्मृति दोनों में, मीमांसक स्मृति मात्र में स्वतन्त्र प्रामाण्य 15 नहीं मानते । इसलिए उनके मत में तो 'अनधिगत' और 'अपूर्व' पद का प्रयोजन स्पष्ट है । पर जैन परम्परा के अनुसार वह प्रयोजन नहीं है ।
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श्वेताम्बर परम्परा के सभी विद्वान् एक मत धारावाहिज्ञान को स्मृति की तरह प्रमाण मानने के ही पक्ष में हैं । अतएव किसी ने अपने प्रमाणलक्षण में 'अनधिगत' 'अपूर्व' आदि जैसे पद का स्थान ही नहीं दिया। इतना ही नहीं, बल्कि उन्होंने स्पष्टरूपेण 20 यह कह दिया कि चाहे ज्ञान गृहीतग्राही हो तब भी वह अगृहीतग्राही के समान ही प्रमाण है । उनके विचारानुसार गृहीतग्राहित्व प्रामाण्य का विघातक नहीं, अतएव उनके मत से एक धारावाहिक ज्ञानव्यक्ति में विषयभेद की अपेक्षा से प्रामाण्य-प्रप्रामाण्य मानने की ज़रूरत नहीं और न तो कभी किसी को प्रप्रमाण मानने की ज़रूरत है /
१ "गृहीतमगृहीतं वा स्वार्थ यदि व्यवस्यति । तन्न लोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम् ॥”— तत्वार्थग्लो० १.१०. ७८ । “प्रमान्तरागृहीतार्थप्रकाशित्वं प्रपञ्चतः । प्रामाण्यं च गृहीतार्थग्राहित्वेपि कथंचन ||" - तत्वार्थम्लो० १. १३. ६४ । “गृहीतग्रहणात् तत्र न स्मृतेश्चेत्प्रमाणता । धारावाह्यक्ष विज्ञानस्यैवं लभ्येत केन सा ॥” – तत्वार्थश्लोकवा० १. १३. १५. " नन्वेवमपि प्रमाणसं प्लववादिताव्याघातः प्रमाणप्रतिपन्नेऽर्थे प्रमाणान्तराप्रतिपत्तिरित्यचाद्यम् । अर्थपरिच्छित्ति विशेषसद्भावे तत्प्रवृत्तेरप्यभ्युपगमात् । प्रथमप्रमाणप्रतिपन्ने हि वस्तुन्याकारविशेषं प्रतिपद्यमानं प्रमाणान्तरमपूर्वार्थमेव वृक्षो न्यग्रोध इत्यादिवत् । " - प्रमेयक० पृ० १६ ।
२ " यद् गृहीतग्राहि ज्ञानं न तत्प्रमाणं यथा स्मृतिः, गृहीतग्राही च प्रत्यक्ष पृष्ठभावी विकल्प इति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः” - तवसं० प० का० १२६८ ।
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