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पृ० ३६ पं० १६.]
भाषाटिप्पणानि ।
प्रथम परम्परा के अनुसार हेतु के पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षव्यावृत्तत्व ये तीन रूप हैं। इस परम्परा के अनुगामी वैशेषिक, सांख्य और बौद्ध तीन दर्शन हैं, जिनमें वैशेषिक और सांख्य ही प्राचीन जान पड़ते हैं। प्रत्यक्ष और अनुमान रूप से प्रमाणद्वय विभाग के विषय में जैसे बौद्ध तार्किकों के ऊपर कणाद दर्शन का प्रभाव स्पष्ट है वैसे ही हेतु के त्रैरूप्य के विषय में भो वैशेषिक दर्शन का ही अनुसरण बौद्ध तार्किकों ने किया जान पड़ता । है। प्रशस्तपाद खुद भी लिङ्ग के स्वरूप के वर्णन में एक कारिका का अवतरण देते हैं जिसमें त्रिरूप हेतु का काश्यपकथित रूप से निर्देश२ है। माठर अपनी वृत्ति में उन्हीं तीन रूपों का निर्देश करते हैं-माठर० ५। अभिधर्मकोश, प्रमाणसमुच्चय, न्यायप्रवेश (०१), न्यायबिन्दु ( २. ५ से.), हेतुबिन्दु । पृ० ६ ) और तत्त्वसंग्रह (का० १३६२) प्रादि सभी बौद्धग्रन्थों में उन्हीं तीन रूपों को हेतु लक्षण मानकर त्रिरूप हेतु का ही समर्थन 10 किया है। बीन रूपों के स्वरूपवर्णन एवं समर्थन तथा परपक्षनिराकरण में जितना विस्तार एवं विशदीकरण बौद्ध ग्रन्थों में देखा जाता है उतना किसी केवल वैशेषिक या सांख्य प्रन्थ में नहीं।
.: नैयायिक उपर्युक्त तीन रूपों के अलावा अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षितत्व ये दो रूप मानकर हेतु के पाश्चरूप्य का समर्थन करते हैं। यह समर्थन सबसे पहले 15 किसने शुरू किया यह निश्चय रूप से अभी कहा नहीं जा सकता। पर सम्भवत: इसका प्रथम समर्थक उद्योतकर (न्यायवा० १. १ ५) होने चाहिएँ। हेतुबिन्दु के टोकाकार अर्चट ने (पृ० १६५ ) तथा प्रशस्तपादानुगामी श्रीधर ने नैयायिकोक्त पाश्चरूप्य का त्रैरूप्य में समावेश किया है। यद्यपि वाचस्पति ( तात्पर्य० १. १. ५; १. १. ३६ ), जयन्त (न्यायम पृ० ११०) प्रादि पिछले सभी नैयायिकों ने उक्त पाश्चरूप्य का समर्थन एवं वर्णन किया है 20 तथापि विचारस्वतन्त्र न्यायपरम्परा में वह पाञ्चलप्य मृतकमुष्टि की तरह स्थिर नहीं रहा। गदाधर आदि नैयायिकों ने व्याप्ति और पक्षधर्मतारूप से हेतु के गमकतोपयोगी तीन रूप का ही अवयवादि में संसूचन किया है। इस तरह पाश्चरूप्य का प्राथमिक नैयायिकामह शिथिल होकर त्रैरूप्य तक आ गया। उक्त पाश्चरूप्य के अलावा छठा अज्ञातत्व रूप गिनाकर षडूप हेतु माननेवालो भी कोई परम्परा थी जिसका निर्देश और खण्डन अर्चट: 25 ..
१ प्रो. चारबिट्स्की के कथनानुसार इस त्रैरूप्य के विषय में बौद्धों का असर वैशेषिकों के ऊपर है-Buddhist Logic vol. I P. 244 । - २ "यदनुमेयेन सम्बद्धं प्रसिद्धं च तदन्विते । तदभावे च नास्त्येव तल्लिङ्गमनुमापकम् ॥ विपरीतमतो यत् स्यादेकेन द्वितयेन वा। विरुद्धासिद्धसन्दिग्धमलिङ्गं काश्यपेाऽब्रवीत् ॥"-प्रशस्त० पृ०२००। कन्दली पृ०२०३। : .. ३ "पडलक्षणो हेतुरित्यपरे नैयायिकमीमांसकादयो मन्यन्ते । कानि पुनः षडरूपाणि हेतोस्तैरिष्यन्ते इत्याह...त्रीणि चैतानि पक्षधर्मान्धयव्यतिरेकाख्याणि, तथा अबाधितविषयत्वं चतुर्थ रूपम् ,...तथा विवक्षितैकसंख्यत्वं रूपान्तरम् -एका संख्या यस्य हेतुद्रव्यस्य तदेकसंख्यं...योकसंख्यावच्छिन्नायां प्रतिहेतुरहितायां हेतुव्यक्ती हेतुत्वं भवति तदा गमकत्वं न तु प्रतिहेतुसहितायामपि द्वित्वसंख्यायुक्तायाम...तथा । ज्ञानविषयत्वं च, न यज्ञात' हेतुः स्वसत्तामात्रेण गमको युक्त इति ।"-हेतुबि० टी०१६४ B .
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