Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 265
________________ पृ० ५७. ५० ६.] भाषाटिप्पणानि । १०७ की सूचक हैं-१-उन्होंने सूत्ररचना, उदाहरण आदि में यद्यपि धर्मकीर्ति को आदर्श रखा है तथापि वादिदेव की तरह पूरा अनुकरण न करके धर्मकीर्ति के निरूपण में थोड़ा सा बुद्धिसिद्ध संशोधन भी किया है। धर्मकीर्ति ने अनन्वय और अव्यतिरेक ऐसे जो दो भेद दिखाये हैं उनको प्रा० हेमचन्द्र अलग न मानकर कहते हैं कि बाकी के पाठ आठ भेद ही अनन्जय और मध्यतिरेक रूप होने से उन दोनों का पार्थक्य अनावश्यक है-प्र० मी २. १. २७ । प्रा० हेमचन्द्र । की यह दृष्टि ठीक है। २-प्रा. हेमचन्द्र ने धर्मकीर्ति के ही शब्दों में अप्रदर्शितान्वय और प्रप्रदर्शितव्यतिरेक ऐसे दो भेद अपने सोलह भेदों में दिखाये हैं ( २. १. २७ ', पर इन दो भेदों के उदाहरणों में धर्मकीर्ति की अपेक्षा विचारपूर्वक संशोधन किया है। धर्मकीर्चि ने पूर्ववर्ती अनन्वय और अव्यतिरेक दृष्टान्ताभास जो न्यायप्रवेश आदि में रहे' उनका निरूपण तो अप्रदर्शितान्वय और प्रप्रदर्शित व्यतिरेक ऐसे नये दो अन्वर्थ स्पष्ट नाम रखकर किया और 10 न्यायप्रवेश आदि के अनन्वय और अव्यतिरेक शब्द को रख भी लिया तथा उन नामों से नये उदाहरण दिखाये जो उन नामों के साथ मेल खा सकें और जो न्यायप्रवेश आदि में नहीं भी थे। प्रा० हेमचन्द्र ने धर्मकीर्ति की ही संशोधित दृष्टि का उपयोग करके पूर्ववर्ती दिङ्नाग, प्रशस्तपाद और धर्मकीर्ति तक के सामने कहा कि अप्रदर्शितान्वय या अप्रदर्शितव्यतिरेक दृष्टान्ताभास तभी कहा जा सकता है जब उसमें प्रमाण प्रात् दृष्टान्त ही न रहे, वीप्सा आदि 15 पदों का प्रप्रयोग इन दोषों का नियामक ही नहीं केवल दृष्टान्त का अप्रदर्शन ही इन दोषों का नियामक है। पूर्ववर्ती सभी प्राचार्य इन दो दृष्टान्ताभासों के उदाहरणों में कम से कमअम्बरवत् घटवत्-जितना प्रयोग अनिवार्य रूप से मानते थे। प्रा० हेमचन्द्र के अनुसार ऐसे दृष्टान्तबोधक 'वत्' प्रत्ययान्त किसी शब्दप्रयोग की ज़रूरत ही नहीं-इसी अपने भाव को उन्होंने प्रमाणमीमांसा (२. १. २७ सूत्र की वृत्ति में निम्नलिखित शब्दों से स्पष्ट किया है-"एतौ च 20 प्रमाणस्य अनुपदर्शनाद्भवतो न तु वीप्सासर्वावधारणपदानामप्रयोगात्, सत्स्वपि तेषु, असति प्रमाणे तयारसिद्धेरिति ।" . ३-प्रा० हेमचन्द्र की तीसरी विशेषता अनेक दृष्टियों से बड़े माके की है। उस साम्प्र.. दायिकता के समय में जब कि धर्मकीर्ति ने वैदिक और जैन सम्प्रदाय पर प्रबल चोट की और जब कि अपने ही पूज्य वादो देवसूरि तक ने 'शाठ्य कुर्यात शठं प्रति' इस नीति का प्राश्रय 25 १ "अनन्वयो यत्र विनान्वयेन साध्यसाधनयाः सहभावः प्रदर्श्यते । यथा घटे कृतकत्वमनित्यत्वं च दृष्टमिति। अव्यतिरको यत्र विना साध्यसाधननिवृत्त्या तद्विपक्षभावो निदर्श्यते। यथा घटे मूर्तत्त्वमनित्यत्वं च दृष्टमिति "-न्यायप्र० पृ० ६-७। “नित्यः शब्दोऽमूर्तत्वात् .... . अम्बरवदिति... ...अननुगत... ... . घटवत्....... अव्यावृत्त........."-प्रशस्त० पृ० २४७। - २ "अप्रदर्शितान्वयः........अनित्यशब्द: कृतकत्वात् घटवत् इति । अप्रदर्शितव्यतिरेको यथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वादाकाशवदिति ।"-न्यायबि०३.१२७, १३५ । ३ "अनन्वयो.........यथा यो वक्ता स रागादिमान् इष्टपुरुषवत् । अव्यतिरेको यथा अवीतरागो वक्तृत्वात् , वैधोदाहरणम्', यत्रावीतरागत्व नास्ति न स वक्ता यथोपनखण्ड-इति ।"-न्यायबि० ३. १२७, १३४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340