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१० ६३. पं० ६. ]
भाषाटिप्पणानि ।
विगृह्य सम्भाषा के अधिकारी जय-पराजयेच्छु और छलबलसम्पन्न सिद्ध होते हैं, न्यायपरम्परा के अनुसार जल्पवितण्डा के वैसे ही अधिकारी माने जाते हैं । इसी भाव को नैयायिक 'विजिगीषुकथा - जल्पवितण्डा' इस लक्षणवाक्य से व्यक्त करते हैं । वाद के अधिकारी तत्त्वबुभुत्सु किस किस गुण से युक्त होने चाहिएँ और वे किस तरह अपना वाद चलावें इसका बहुत ही मनोहर व समान वर्णन चरक तथा न्यायभाष्य आदि में है ।
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न्याय परम्परा में जल्पवितण्डा कथा करनेवाले को विजिगीषु माना है जैसा कि चरक ने पर वैसी कथा करते समय वह विजिगीषु प्रतिवादी और अपने बीच किन किन गुण-दोषों की तुलना करे, अपने से श्रेष्ठ, कनिष्ठ या बराबरीवाले प्रतिवादो से किस किस प्रकार की सभा और कैसे सभ्यों के बीच किस किस प्रकार का बर्ताव करे, प्रतिवादी से आटोप के साथ कैसे बोले, कभी कैसा झिड़के इत्यादि बातों का जैसा विस्तृत व प्राँखोंदेखा वर्णन 10. चरक ( पृ० २६४ ) ने किया है वैसा न्याय परम्परा के ग्रन्थों में नहीं है । चरक के इस वर्णन से कुछ मिलता-जुलता वर्णन जैनाचार्य सिद्धसेन ने अपनी एक वादोपनिषद्वात्रिंशिका में किया है, जिसे चरक के वर्णन के साथ पढ़ना चाहिए। बौद्ध परम्परा जब तक न्याय परम्परा की तरह जल्पकथा को भी मानती रही तब तक उसके अनुसार भी वाद के अधिकारी तत्त्वबुभुसु और जल्पादि के अधिकारी विजिगीषु ही फलित होते हैं, जैसा कि न्यायपरम्परा 15 में। उस प्राचीन समय का बौद्ध विजिगोषु, नैयायिक विजिगोषु से भिन्न प्रकार का सम्भव नहीं, पर जब से बौद्ध परम्परा में छल आदि के प्रयोग का निषेध होने के कारण जल्पकथा नाम शेष हो गई और वादकथा ही अवशिष्ट रही तब से उसमें अधिकारिद्वैविध्य का प्रश्न ही नहीं रहा, जैसा कि जैन परम्परा में ।
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जैन परम्परा के अनुसार चतुरङ्गवाद के अधिकारी विजिगीषु हैं । पर न्याय-वैद्यक- 20 परम्परासम्मत विजिगीषु और जैनपरम्परासम्मत विजिगीषु के अर्थ में बड़ा अन्तर है । क्योंकि न्याय-वैद्यक परम्परा के अनुसार विजिगोषु वही है जो न्याय से या अन्याय से, छल आदि का प्रयोग करके भी प्रतिवादी को परास्त करना चाहे, जब कि जैनपरम्परा विजिगीषु उसी को मानती है जो अपने पक्ष की सिद्धि करना चाहे, पर न्याय से; अन्याय से छलादि का प्रयोग करके कभी नहीं । इस दृष्टि से जैनपरम्परासम्मत विजिगीषु असूयावान होकर 25 भी न्यायमार्ग से ही अपना पक्ष सिद्ध करने का इच्छुक होने से क़रीब क़रीब न्याय- परम्परासम्मत तत्वबुभुत्सु की कोटि का हो जाता है। जैन परम्परा ने विजय का अर्थ - अपने पक्ष की न्याय्य सिद्धि - ही किया है, न्याय-वैद्यक परम्परा की तरह, किसी भी तरह से प्रतिवादी को मूक करना नहीं ।
जैन परम्परा के प्राथमिक तार्किक ? ने, जो विजिगीषु नहीं हैं ऐसे वीतराग व्यक्तियों 30 का भी वाद माना है । पर वह वाद चतुरङ्ग नहीं है । क्योंकि उसके अधिकारी भले ही
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१ “परार्थाधिगमस्तत्रानुद्भवद्रागगोचरः । जिगीषुगोचरश्चेति द्विधा शुद्धधियो विदुः ॥ सत्यवाग्भिः विधातव्यः प्रथमस्तत्तत्रवेदिभिः । यथाकथञ्चिदित्येष चतुरङ्गो न सम्मतः || ” - तच्चवार्थश्लो० पृ० २७७ ।
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