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प्रमाणमीमांसायाः
[ पृ० ६३. पं० १२
पक्ष-प्रतिपक्ष लेकर प्रवृत्त हों पर वे प्रसूया मुक्त होने के कारण किसी सभापति या सभ्यों के शासन की अपेक्षा नहीं रखते । वे आपस में ही तत्त्वबोध का विनिमय या स्वीकार कर लेते हैं । जैन परम्परा के विजिगीषु में और उसके पूर्वोक्त तत्स्वनिर्णिनीषु में अन्तर इतना ही है कि विजिगीषु न्यायमार्ग से चलनेवाले होने पर भी ऐसे असूयामुक्त नहीं होते जिससे 5 वे बिना किसी के शासन के किसी बात को स्वतः मान लें, जब कि तत्त्वनिर्णिनीषु न्यायमार्ग से चलनेवाले होने के अलावा तत्त्वनिर्णय के स्वीकार में अन्य के शासन से निरपेक्ष होते हैं । इस प्रकार चतुरङ्गवाद के वादी प्रतिवादी दोनों विजिगीषु होने की पूर्व प्रथा रही ?, इसमें वादि देवसूरि ने (प्रमाणन० ८. १२-१४ ) थोड़ा विचारभेद्र प्रकट किया कि, एकमात्र विजिगीषु वादी या प्रतिवादी के होने पर भी चतुरङ्ग कथा का सम्भव है । उन्होंने यह विचारभेद 10 सम्भवतः अलङ्क या विद्यानन्द आदि पूर्ववर्ती तार्किकों के सामने रखा है। इस विषय में आचार्य हेमचन्द्र का मानना अकलङ्क और विद्यानन्द के अनुसार ही जान पड़ता है ब्राह्मण बौद्ध और जैन सभी परम्पराओं के अनुसार कथा का मुख्य प्रयोजन तवज्ञान की प्राप्ति या प्राप्त तत्त्वज्ञान की रक्षा ही है । साध्य में किसी का मतभेद न होने पर भी उसको साधनप्रणाली में अन्तर अवश्य है, जो पहिले भी बताया जा चुका है । संक्षेप में 16 वह अन्तर इतना ही है कि जैन और उत्तरवर्ती बौद्ध तार्किक छल, जाति प्रादि के प्रयोग को
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कभी उपादेय नहीं मानते ।
वादी, प्रतिवादी, सभ्य और सभापति इन चारों अङ्गों के वर्णन में तीनों२ परम्पराम्रों में कोई मतभेद नहीं है। आचार्य हेमचन्द्र ने जो चारों अङ्गों के स्वरूप का संक्षिप्त निदर्शन किया है वह पूर्ववर्ती ग्रन्थों का सार मात्र है ।
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या वितण्डा नामक कथा वाद से भिन्न कोई न रही । चर्चा के द्वारा सिद्ध किया । इस विषय का सबसे जिसका निर्देश सिद्धिविनिश्चयटीका ( पृ० २८६ A ) में है । स्थिर किया कि जल्प और वितण्डा नामक कोई वाद से भिन्न कथा ही नहीं, वह तो कथा25 भास मात्र है । इसी मन्तव्य के अनुसार आचार्य हेमचन्द्र ने भी अपनी चर्चा में बतलाया
जैन परम्परा ने जब कलादि के प्रयोग का निषेध ही किया तब उसके अनुसार जल्प इस तत्व को जैन तार्किको ने विस्तृत पुराना प्रन्थ शायद कथात्रयभङ्ग हो, उन्होंने अन्त में अपना मन्तव्य
किवाद से भिन्न कोई जल्प नामक कथान्तर नहीं, जो ग्राह्य हो ।
पृ० ६३. पं० १२. 'स्वसमय पर ' - " उक्तभ्व - स्वसमय " - न्यायप्र० वृ० पृ० १४ ।
१ "वादः सोऽयं जिगीषतेोः । " - न्यायवि० २. २१२ । “समर्थ वचनं वाद : प्रकृतार्थ प्रत्यायन परं साक्षिसमक्ष जिगीषतेोरेकत्र साधनदूषणवचनं वादः ।" - प्रमाणसं० परि० ६ । "सिद्धो जिगीषतो वादः चतुरङ्गस्तथा सति । " - तत्वार्थश्लेा० पृ० २७७ ।
२ देखा - चरकसं० पृ० २६४ ।
न्यायप्र० पृ० १४ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० २८०
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