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पृ० ५८. पं० १५.]
भाषाटिप्पणानि ।
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कि जैन परम्परा के लिए वैसा करना सहज न था । क्या करना यह एक बार प्रकृति के अनुसार तय हो जाता है तब विद्वान उसी कर्तव्य का सयुक्तिक समर्थन भी कर लेते हैं । कुशाग्रीयबुद्धि ब्राह्मण: तार्किकों ने यही किया । उन्होंने कहा कि तस्वनिर्णय की रक्षा वास्ते कभी-कभी छल, जाति आदि का प्रयोग भी उपकारक होने से उपादेय है, जैसा कि अङ्कुररक्षा के वास्ते सकण्टक बाड़ का उपयोग। इस दृष्टि से उन्होंने छल, जाति आदि के प्रयोग 5 की भी मोक्ष के साथ सङ्गति बतलाई। उन्होंने अपने समर्थन में एक बात स्पष्ट कह दी कि छल, जाति आदि का प्रयोग भी तत्त्वज्ञान की रक्षा के सिवाय लाभ, ख्याति आदि अन्य किसी भौतिक उद्द ेश से कर्तव्य नहीं है । इस तरह अवस्था विशेष में छल, जाति आदि के प्रयोग का समर्थन करके उसकी मोक्ष के साथ जो सङ्गति ब्राह्मण तार्किक्रां ने दिखाई वही बौद्ध तार्किकों ने अक्षरश: स्वीकार करके अपने पक्ष में भी लागू की । उपायहृदय के लेखक बौद्ध तार्किक 10 ने― छल जाति आदि के प्रयोग की मोत के साथ कैसी असङ्गति है - यह आशङ्का करके उसका समाधान अक्षपाद के ही शब्दों में किया है कि आम्रफन की रक्षा आदि के वास्ते कण्टकिल बाड़ की तरह सद्धर्म की रक्षा के लिए छलादि भी प्रयोगयोग्य हैं । वादसम्बन्धी पदार्थों के प्रथम चिन्तन, वर्गीकरण और सङ्कलन का श्रेय ब्राह्मण परम्परा को है या बौद्ध परम्परा को इस प्रश्न का सुनिश्चित जवाब छलादि के प्रयोग के उस समान समर्थन में से 15 मिल जाता है। बौद्ध परम्परा मूल से ही जैन परम्परा की तरह त्यागिभिक्षुप्रधान रही है और उसने एकमात्र निर्वाण तथा उसके उपाय पर ही भार दिया है। वह अपनी प्रकृति के अनुसार शुरू में कभी छल आदि के प्रयोग को सङ्गत मान नहीं सकती जैसा कि ब्राह्मण परम्परा मान सकती है । अतएव इसमें सन्देह नहीं रहता कि बुद्ध के शान्त और अक्लेश धर्म की परम्परा के स्थापन व प्रचार में पड़ जाने के बाद भिक्षुकों को जब ब्राह्मण विद्वानों से 20 लोहा लेना पड़ा तभी उन्होंने उनकी वादपद्धति का विशेष अभ्यास, प्रयोग व समर्थन शुरू किया । और जो जो ब्राह्मण कुलागत संस्कृत तथा न्याय विद्या सीखकर बौद्ध परम्परा में दीक्षित हुए वे भी अपने साथ कुलधर्म की वे ही दलीलें ले आए, जो न्याय परम्परा में थीं । उन्होंने नवस्वीकृत बौद्ध परम्परा में उन्हीं वादपदार्थों के अभ्यास और प्रयोग आदि का प्रचार किया जो न्याय या वैद्यक आदि ब्राह्मण परम्परा में प्रसिद्ध रहे । इस तरह प्रकृति में 25 जैन और बौद्ध परम्पराएँ तुल्य होने पर भी ब्राह्मण विद्वानों के प्रथम सम्पर्क और संघर्ष की प्रधानता के कारण से ही बौद्ध परम्परा में ब्राह्मण परम्परानुसारी छल आदि का समर्थन प्रथम किया गया । अगर इस बारे में ब्राह्मण परम्परा पर बौद्ध परम्परा का ही प्रथम प्रभाव होता तो किसी न किसी अति प्राचीन ब्राह्मण ग्रन्थ में तथा बौद्ध ग्रन्थ में बौद्ध प्रकृति के अनुसार
१ “तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थं जल्पवितण्डे बीजप्ररोहसंरक्षणार्थ कण्टकशाखावरणवत् । " - न्यायसू० ४. २. ५० । “यथाम्रफलपरिपुष्टिकामेन तत् फल परिरक्षणार्थ बहिब तीक्ष्ण कण्टकनिकरविन्यासः क्रियते, शम्भोऽपि तथैवाधुना सद्धर्मरक्षणेच्छया न तु ख्यातिलाभाय ।" - उपायहृदय पृ० ४ ।
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