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११० प्रमाणमीमांसाया:
[पृ० ५६. पं० १५३- उद्देश. विभाग और लक्षण प्रादि द्वारा दोषों तथा दोषाभासों के निरूपण का प्रयोजन सभी परम्पराओं में एक ही माना गया है और वह यह कि उनका यथार्थ ज्ञान किया जाय जिससे वादी स्वयं अपने स्थापनावाक्य में उन दोषों से बच जाय और प्रतिवादी के द्वारा उद्भावित दोषाभास का दोषाभासत्व दिखाकर अपने प्रयोग को निर्दोष साबित कर सके। 5 इसी मुख्य प्रयोजन से प्रेरित होकर किसी ने अपने ग्रन्थ में संक्षेप से तो किसी ने विस्तार से, किसी ने अमुक एक प्रकार के वर्गीकरण से तो किसी ने दूसरे प्रकार के वर्गीकरण से, उनका निरूपण किया है।
४-उक्त प्रयोजन के बारे में सब का ऐकमत्य होने पर भी एक विशिष्ट प्रयोजन के विषय में मतभेद अवश्य है जो खास ज्ञातव्य है। वह विशिष्ट प्रयोजन है-जाति, छल 10 आदि रूप से असत्य उत्तर का भी प्रयोग करना। न्याय (न्यायसू० ४.२.५०) हो या वैद्यक
(चरक-वमानस्थान पृ. २६४) दोनों ब्राह्मण परम्पराएँ असत्य उत्तर के प्रयोग का भी समर्थन पहले से अभी तक करती आई हैं। बौद्ध परम्परा के भी प्राचीन उपायहृदय आदि कुछ ग्रन्थ जात्युत्तर के प्रयोग का समर्थन ब्राह्मण परम्परा के ग्रन्थों की तरह ही साफ़-साफ़ करते
हैं, जब कि उस परम्परा के पिछले ग्रन्थों में जात्युत्तरों का वर्णन होते हुए भी उनके प्रयोग 15 का स्पष्ट व सबल निषेध है -वादन्याय पृ०७०। जैन परम्परा के ग्रन्थों में तो प्रथम से ही
लेकर मिथ्या उत्तरों के प्रयोग का सर्वथा निषेध किया गया है-तत्वार्थश्लो० पृ. २७६ । उनके प्रयोग का समर्थन कभी नहीं किया गया। छल-जाति युक्त कथा कर्तव्य है या नहीं इस प्रश्न पर जब जब जैन तार्किकों ने जैनेतर तार्किकों के साथ चर्चा की तब तब उन्होंने अपनो एक मात्र
राय यही प्रकट की कि वैसी कथा कर्तव्य नहीं, त्याज्य है। ब्राह्मण, बौद्ध और जैन सभी 20 भारतीय दर्शनों का प्रन्तिम व मुख्य उद्देश मोक्ष बतलाया गया है और मोक्ष की सिद्ध
असत्य या मिथ्याज्ञान से शक्य ही नहीं जो जात्युत्तरों में अवश्य गर्भित है। तब केवल जैनदर्शन के अनुसार ही क्यों, बल्कि ब्राह्मण और बौद्ध दर्शन के अनुसार भी जात्युत्तरों का प्रयोग असंगत है। ऐसा होते हुए भी ब्राह्मण और बौद्ध तार्किक उनके प्रयोग का समर्थन करते हैं
और जैन तार्किक नहीं करते इस अन्तर का बीज क्या है, यह प्रश्न अवश्य पैदा होता है। 25 इसका जवाब जैन और जैनेतर दर्शनों के अधिकारियों की प्रकृति में है। जैन दर्शन मुख्यतया
त्यागिप्रधान होने से उसके अधिकारियों में मुमुक्षु ही मुख्य हैं, गृहस्थ नहीं। जब कि ब्राह्मण परम्परा चातुराश्रमिक होने से उसके अधिकारियों में गृहस्थों का, खासकर विद्वान् ब्राह्मण गृहस्थों का, वही दर्जा है जो त्यागियों का होता है। गार्हस्थ्य की प्रधानता होने के कारण
ब्राह्मण विद्वानों ने व्यावहारिक जीवन में सत्य, अहिंसा आदि नियमों पर उतना भार नहीं 30 दिया जितना कि जैन त्यागियों ने उन पर दिया। गार्हस्थ्य के साथ अर्थलाभ, जयतृष्णा
आदि का, त्यागजीवन की अपेक्षा अधिक सम्बन्ध है। इन कारणों से ब्राह्मण परम्परा में मोक्ष का उद्देश होते हुए भी छल, जाति प्रादि के प्रयोग का समर्थन होना सहज था, जब
१ देखो सिद्धसेनकृत वावद्वात्रिंशिका, वादाष्टक; न्यायवि० २. २१४ ।
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