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प्रमाणमीमांसायाः
[पृ० ५६. पं० - करके धर्मकीर्ति का बदला चुकाया तब प्रा० हेमचन्द्र ने इस स्थल में बुद्धिपूर्वक उदारता दिखाकर साम्प्रदायिक भाव के विष को कम करने की चेष्टा की। जान पड़ता है अपने व्याकरण की तरह? अपने प्रमाणग्रन्थ को भी सर्वपार्षद--सर्वसाधारण बनाने की प्रा० हेम
चन्द्र की उदार इच्छा का ही यह परिणाम है। धर्मकीर्ति के द्वारा ऋषभ, वर्धमान प्रादि 5 पर किये गये कटाक्ष और वादिदेव के द्वारा सुगत पर किये गये प्रतिकटाक्ष का तर्कशास्त्र में कितना अनौचित्य है, उससे कितना रुचिभङ्ग होता है, यह सब सोचकर प्रा० हेमचन्द्र ने ऐसे उदाहरणर रचे जिनसे सबका मतलब सिद्ध हो पर किसी को प्राघात न हो।
यहाँ एक बात और भी ध्यान देने योग्य है जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्व की है। धर्मकीति ने अपने उदाहरणों में कपिल मादि में असर्वज्ञत्व और अनामत्व साधक जो अनु. 10 मान प्रयोग रखे हैं उनका स्वरूप तथा तदन्तर्गत हेतु का स्वरूप विचारते हुए जान पड़ता है
कि सिद्धसेन के सन्मति जैसे और समन्तभद्र के प्राप्तमीमांसा जैसे कोई दूसरे ग्रन्थ धर्मकीर्ति के सामने अवश्य रहे हैं जिनमें जैन तार्किकों ने अन्य सांख्य आदि दर्शनमान्य कपिल प्रादि की सर्वज्ञता का और प्राप्तता का निराकरण किया होगा।
पृ०. ५१. पं०. ७. 'ननु अनन्वय'-तुलना-न्यायवि० ३,१२७, १३४ ।
15. प्र. २. प्रा० १. सू० २८-२६. पृ० ५६. परार्थानुमान का एक प्रकार कथा भी है,
जो पक्ष-प्रतिपक्षभाव के सिवाय कभी शुरू नहीं होती। इस कथा से सम्बन्ध रखनेवाले अनेक पदार्थो का निरूपण करनेवाला साहित्य विशाल परिमाण में इस देश में निर्मित हुआ है। यह साहित्य मुख्यतया दो परम्पराओं में विभाजित है-ब्राह्मण-वैदिक परम्परा और श्रमण
वैदिकेतर परम्परा। वैदिक परम्परा में न्याय तथा वैद्यक सम्प्रदाय का समावेश है। 20 श्रमण परम्परा में बौद्ध तथा जैन सम्प्रदाय का समावेश है। वैदिक परम्परा के कथासम्बन्धी
इस वक्त उपलब्ध साहित्य में अक्षपाद के न्यायसूत्र तथा चरक का एक प्रकरण-विमानस्थान .- मुख्य एवं प्राचीन हैं। न्यायभाष्य, न्यायवार्तिक, तात्पर्यटोका, न्यायमञ्जरी आदि उनके टीकाग्रन्थ तथा न्यायकलिका भी उतने ही महत्त्व के हैं।
बौद्ध सम्प्रदाय के प्रस्तुत विषयक साहित्य में उपायहृदय, तर्कशास्त्र, प्रमाणसमुच्चय, 25 न्यायमुख, न्यायबिन्दु, वादन्याय इत्यादि प्रन्थ मुख्य एवं प्रतिष्ठित हैं।
१ "सर्वपार्षदत्वाच्च शब्दानुशासनस्य सकलदर्शनसमूहात्मकस्याद्वादसमाश्रयणमतिरमणीयम् ।”हैमश० १.१.२।
२ प्र० मी०२.१.२५।।
३ पुरातत्त्व पु० ३. अङ्क ३रे में मेरा लिखा 'कथापद्धतिनु स्वरूप अने तेना साहित्यन दिग्दर्शन' नामक लेख देखो।
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