Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 246
________________ प्रमाणमीमांसायाः [ पृ० ४५. पं० २० १ - बहुत पहिले से ही पक्ष का स्वरूप विचारपथ में आकर निश्चित सा हो गया था फिर भी प्रशस्तपाद ने प्रतिज्ञालक्षणा करते समय उसका चित्रण स्पष्ट कर दिया है? । न्यायप्रवेश में और न्यायबिन्दु मेंरे तो यहाँ तक लक्षण की भाषा निश्चित हो गई है कि इसके बाद के सभी दिगम्बर श्वेताम्बर तार्किकों ने उसी बौद्ध भाषा का उन्हीं शब्दों से या 5 पर्यायान्तर से अनुवाद करके ही अपने अपने ग्रन्थों में पक्ष का स्वरूप बतलाया है जिसमें कोई म्यूनाधिकता नहीं है । द २- लक्षण के इष्ट, प्रसिद्ध, और प्रबाधित इन तीनों विशेषणों की व्यावृत्ति प्रशस्तपाद और न्यायप्रवेश में नहीं देखी जाती किन्तु अबाधित इस एक विशेषण की व्यावृत्ति उनमें स्पष्ट ४ । न्यायबिन्दु में उक्त तीनों की व्यावृत्ति है। जैनमन्थों में भी तीनों विशेषयों की 10 व्यावृत्ति स्पष्टतया बतलाई गई है । अन्तर इतना ही है कि माणिक्यनन्दी ( परी० ३. २०. ) देव (प्रमाणन० ३. १४-१७ ) तो सभी व्यावृत्तियाँ धर्मकीर्त्ति की तरह मूल सूत्र में ही दरसाई हैं जब कि प्रा० हेमचन्द्र ने दो विशेषणों की व्यावृत्तियों को वृत्ति में बतलाकर सिर्फ प्रशस्तपाद ने प्रत्यक्षविरुद्ध, अनुमान - रूप से पाँच बाधितपन्त बतलाये पर स्वशास्त्रविरुद्ध के स्थान में लोकलोकविरुद्ध दोनों नहीं हैं पर प्रतीति बाध्य विशेषण की व्यावृत्ति को सूत्रबद्ध किया है । विरुद्ध, आगमविरुद्ध, स्वशास्त्रविरुद्ध और स्ववचनविरुद्ध 15 हैं। न्यायप्रवेश में भी बाधितपक्ष तो पाँच ही हैं विरुद्ध का समावेश है । न्यायबिन्दु में आगम और १ “प्रतिपिपादयिषित धर्मविशिष्टस्य धर्मिणोऽपदेशविषयमापादयितु ं उद्द ेशमात्रं प्रतिज्ञा.... श्रविरोधिग्रहणात् प्रत्यक्षानुमानाभ्युपगतस्वशास्त्रस्ववचनविरोधिनो निरस्ता भवन्ति " - प्रशस्त० पृ० २३४ | २ " तत्र पक्षः प्रसिद्धो धर्मी प्रसिद्धविशेषेण विशिष्टतया स्वयं साध्यत्वेनेप्सितः । प्रत्यक्षाद्यविरुद्ध इति वाक्यशेषः । तद्यथा नित्यः शब्दोऽनित्यो वेति ।" - न्यायप्र० पृ० १ । ३ “स्वरूपेणैव स्वयमिष्टोऽनिराकृतः पक्ष इति ।" न्यायबि० ३. ४० । ४ " यथाऽनुष्णेऽग्निरिति प्रत्यक्षविरोधी, घनमम्बरमिति अनुमानविरोधी, ब्राह्मणेन सुरा पेयेत्यागमविरोधी, वैशेषिकस्य सत्कार्यमिति ब्रुवतः स्वशास्त्रविरोधी, न शब्दोऽर्थप्रत्यायक इति स्ववचनविरोधी । "प्रशस्त० पृ० २३४ । “साधयितुमिष्टोपि प्रत्यक्षादिविरुद्धः पक्षाभासः । तद्यथा— प्रत्यक्षविरुद्ध:, अनुमानविरुद्धः, श्रागमविरुद्धः, लोकविरुद्धः स्ववचनविरुद्धः, अप्रसिद्ध विशेषणः, अप्रसिद्धविशेष्यः, प्रसिद्धोभयः, प्रसिद्धसम्बन्धश्चेति । " न्यायप्र० पृ० २ । ५ “स्वरूपेणेति साध्यत्वेनेष्टः । स्वरूपेणैवेति साध्यत्वेनेष्टो न साधनत्वेनापि । यथा शब्दस्यानित्यत्वे साध्ये चाक्षुषत्वं हेतुः शब्देऽसिद्धत्वात्साध्यम्, न पुनस्तदिह साध्यत्वेनेष्टं साधनत्वेनाप्यभिधानात् । स्वयमिति वादिना । यस्तदा साधनमाह । एतेन यद्यपि क्वचिच्छास्त्रे स्थितः साधनमाह, तच्छास्त्रकारेण तस्मिन्धर्मिण्यनेकधर्माभ्युपगमेऽपि, यस्तदा तेन वादिना धर्मः स्वयं साधयितुमिष्टः स एव साध्यो नेतर इत्युक्त भवति । इष्ट इति यत्रार्थे विवादेन साधनमुपन्यस्तं तस्य सिद्धिमिच्छता सोनुaise वचनेन साध्यः । तदधिकरणत्वाद्विवादस्य । यथा परार्थाश्चक्षुरादयः संघातत्वाच्छ्यनासनाद्यङ्गवत् इति श्रत्रात्मार्था इत्यनुक्तावप्यात्मार्थता साध्या, अनेन नोक्तमात्रमेव साध्यमित्युक्तं भवति । निराकृत इति एतल्लक्षणयोगेऽपि यः साधयितुमिष्टोऽप्यर्थः प्रत्यक्षानुमानप्रतीतिस्ववचनैर्निराक्रियते न स पक्ष इति प्रदर्शनार्थम् ।" - न्यायवि० ३. ४१-५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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