Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
View full book text
________________
प्रमाणमीमांसाया:
[१०४६.५० १४मणिकार गङ्गेश ने पक्षता का जो अन्तिम और सूक्ष्मतम निरूपण किया है उसका पा० हेमचन्द्र की कृति में आने का सम्भव ही न था फिर भी प्राचीन और पर्वाचीन सभी पक्ष लक्षणों के तुलनात्मक विचार के बाद इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि गङ्गेश का
वह परिष्कृत विचार सभी पूर्ववर्ती नैयायिक, बौद्ध और जैन ग्रन्थों में पुरानी परिभाषा और 5 पुराने ढङ्ग से पाया जाता है।
पृ० ४६. पं० १४. 'एतत-तुलना-"अत्र हेतुलक्षणे निश्चेतव्ये धर्म्यनुमेयः। अन्यत्र तु साध्यप्रतिपत्तिकाले समुदायोऽनुमेयः। व्याप्तिनिश्चयकाले तु धर्मोऽनुमेय इति दर्शयितुमत्र ग्रहणम् । जिज्ञासितो ज्ञातुमिष्टो विशेषो धर्मो यस्य धर्मिणः स तथोक्तः ।"-न्यायबि० टी० २.८। परी० ३. २५, २६, ३२, ३३ । प्रमाणन० ३.१६-१८।
10
पृ० ४६. पं० १६. 'प्रसिद्धः-तुलना-"प्रसिद्धो धर्मीति ।"-परी० ३. २७ । पृ० ४६. पं० २०. 'एतेन सर्व एवं'-तुलना-प्रमेयर० ३. २६,२७ ।
पृ०४७.५० ५. 'तत्र बुद्धिसिद्धे-परी० ३. २७-३१ । पृ० ४७. पं० ७. 'ननु धर्मिणि-तुलना-प्रमेयर० ३. २६ । पृ० ४०. पं० १६. 'उभयसिद्धो धर्मी'-तुलना-प्रमेयर० ३. ३१ ।
15. प्र. १. प्रा० २. सू० १८-२३. पृ० ४७. दृष्टान्त के विषय में इस जगह वीन बातें प्रस्तुत हैं-१-अनुमानाङ्गत्व का प्रश्न, २-लक्षण, ३-उपयोग।
१-धर्मकीर्ति ने हेतु का रूप्यकथन जो हेतुसमर्थन के नाम से प्रसिद्ध है उसमें ही दृष्टान्त का समावेश कर दिया है अतएव उनके मतानुसार दृष्टान्त हेतुसमर्थनघटक रूप से
अनुमान का अङ्ग है और वह भी अविद्वानों के वास्ते। विद्वानों के वास्ते तो उक्त समर्थन 20 के सिवाय हेतुमात्र ही कार्यसाधक होता है (प्रमाणवा० १. २८), इसलिए दृष्टान्त उनके लिए अनुमानाङ्ग नहीं। माणिक्यनन्दी (३. ३७-४२), देवसूरि (प्रमाणन० ३.२८, ३४-३८)
और प्रा० हेमचन्द्र सभी ने दृष्टान्त को अनुमानाष नहीं माना है और विकल्प द्वारा अनुमान में उसकी उपयोगिता का खण्डन भी किया है, फिर भी उन सभी ने केवल मन्दमति शिष्यों
के लिए परार्थानुमान में (प्रमाणन० ३. ४२, परी० ३. ४६ ) उसे व्याप्तिस्मारक बतलाया है 25 तब प्रश्न होता है कि उनके अनुमानाङ्गत्व के खंडन का अर्थ क्या है। इसका जवाब यही
१ "उच्यते-सिषाधयिषाविरहसहकृतसाधकप्रमाणाभावो यत्रास्ति स पक्षः, तेन सिषाधयिषाविरहसहकृतं साधकप्रमाण यत्रास्ति स न पक्षः, यत्र साधकप्रमाणे सत्यसति वा सिषाधयिषा यत्र वोभयाभावस्तत्र विशिष्टाभावात् पक्षत्वम् ।”-चिन्ता० अनु० गादा० पृ० ४३१-३२ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org