Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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प्रमाणमीमांसाया:
[पृ० ५१. ५०१ने उस उदाहरण के स्थान में प्रतिवादी बौद्ध परम्परा का ही भिक्षु-शैक्ष प्रसंग उदाहरण रूप से वर्णित किया है।
पृ० ५१. पं० १. 'अयमर्थ:-तुलना-"तथाहि परप्रत्यायनाय वचनमुचारयन्ति प्रेक्षावन्तः तदेव च परे बोधयितव्या यद् बुभुत्सन्ते तथासत्यनेनापेक्षिताभिधानात् परो बोधितो भवति न 5 खल्वाम्रान् पृष्टः कोविदारानाचक्षाणः प्रष्टुरवधेयवचनो भवति। अनवधेयवचनश्च कथं प्रति
पादको नाम ?। यथा च माठर समिधमाहरेति गुरुणा प्रेषित एषोऽहमाहरामीत्यनुक्त्वा तदर्थं यदायं गृहं प्रविशति तदाऽस्मै कुप्यति गुरुः प्राः शिष्यापसद छान्दसवत्तर माठर मामवधीरयसीति ब्रुवाणः। एवमनित्यं शब्दं बुभुत्समानायानित्यः शब्द इत्यनुक्त्वा यदेव
किञ्चिदुच्यते कृतकत्वादिति वा, यत् कृतकं तदनित्यमिति वा, कृतकश्च शब्द इति वा, 10 तत् सर्वमस्यानपेक्षितमापाततोऽसम्बद्धाभिधानम् । तथा चानवहितो न बोद्धमईतीवि ।
यत् कृतकं........। अनित्यः शब्द इति त्वपेक्षित उक्ते कुत इत्यपेक्षायां कृतकत्वादिति हेतुरुपतिष्ठते ।"-तात्पर्य० पृ० २७४ ।
पृ० ५२.५० १. 'साध्यव्याप्त-तुलना-प्रमेयर० ३.३५ ।
अ० २. प्रा० १. सू० ६-१०. पृ. ५२. परार्थ अनुमान स्थल में प्रयोगपरिपाटी 15 के सम्बन्ध में मतभेद है। सांख्य तार्किक प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त इन तीन अवयत्रों का ही प्रयोग
मानते हैं-माठर ५ । मीमांसक, वादिदेव के कथनानुसार, तीन अवयवों का ही प्रयोग मानते हैंस्याद्वादर० पृ० ५५६ । पर प्रा० हेमचन्द्र तथा अनन्तवीर्य के कथनानुसार वे चार अवयवों का प्रयोग मानते हैं-प्रमेयर ० ३. ३७ । शालिकनाथ, जो मीमांसक प्रभाकर के अनुगामी हैं
उन्होंने अपनी प्रकरणपब्चिका में (पृ०८३-८५ ), तथा पार्थसारथि मिश्र ने श्लोकवार्तिक 20 की व्याख्या में ( अनु० श्लो० ५४ ) मीमासकसम्मत तीन अवयवों का ही निदर्शन किया है।
वादिदेव का कथन शालिकनाथ तथा पार्थसारथि के अनुसार ही है पर प्रा० हेमचन्द्र तथा अनन्तवीर्य का नहीं। अगर प्रा. हेमचन्द्र और अनन्तवीर्य दोनों मीमांसकसम्मत चतुरवयव कथन में भ्रान्त नहीं हैं तो समझना चाहिए कि उनके सामने चतुरवयववाद की
कोई मीमांसक परम्परा रही हो जिसका उन्होंने निर्देश किया है। नैयायिक पाँच अवयवों 30 का प्रयोग मानते हैं-१. १. ३२ । बौद्ध तार्किक, अधिक से अधिक हेतु-दृष्टान्त दो का ही
प्रयोग मानते हैं (प्रमाणवा० १. २८; स्याद्वादर० पृ० ५५६) और कम से कम केवल हेतु का ही प्रयोग मानते हैं ( प्रमाणवा० १. २८)। इस नाना प्रकार के मतभेद के बीच जैन तार्किकों ने अपना मत, जैसा अन्यत्र भी देखा जाता है, वैसे ही अनेकान्त दृष्टि के अनुसार नियुक्ति
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