Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 254
________________ प्रमाणमीमांसायाः [पृ० ५२. पं० ४योग्य है वह यह कि जैसा बौद्ध विशिष्ट विद्वानों के वास्ते हेतु मात्र का प्रयोग मानते हैं वैसे ही वादिदेव भी विद्वान अधिकारी के वास्ते एक हेतुमात्र का प्रयोग भी मान लेते हैं। ऐसा स्पष्ट स्वीकार प्रा० हेमचन्द्र ने नहीं किया है। पृ० ५२. पं० ४. 'प्रतिज्ञाहेतू'-तुलना-"पक्षहेतुदृष्टान्ता इति त्र्यवयवम्"-माठर का० ५ । पृ० ५२. पं० ११. 'यथाहुः सौगता:'-तुलना-"तस्यैव साधनस्य यन्नाङ्ग प्रतिज्ञोपनयनिगमनादि..."-वादन्याय पृ० ६१. 'तद्भावहेतुभावौ हि दृष्टान्ते तदवेदिनः । ख्याप्येते विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवलः ॥"-प्रमाणवा० १. २८ । अ० २. ० १. सू० ११-१५. पृ० ५२-माणिक्यनन्दी और वादी देवसूरि ने अपने 10 अपने सूत्रग्रन्थों में परार्थ अनुमान की चर्चा की है पर उन्होंने उसके शब्दात्मक पाँच अवयवों के लक्षण नहीं किये जब कि प्रा० हेमचन्द्र ने इस जगह अक्षपाद (न्यायसू० १.१.३३ से ) और अक्षपादानुसारी भासर्वज्ञ ( न्यायसार पृ० ५. ) का अनुसरण करके पांचों शब्दावयवों के लक्षण बतलाये हैं। पृ० ५४. पं० ३. 'असिद्ध' हेत्वाभास सामान्य के विभाग में तार्किकों की विप्रति15 पत्ति है। अक्षपाद? पाँच हेत्वाभासों को मानते व वर्णन करते हैं। कणाद के सूत्र में स्पष्टतया तीन हेत्वाभासों का निर्देश है, तथापि प्रशस्तपाद३ उस सूत्र का प्राशय बतलाते हुए चार हेत्वाभासों का वर्णन करते हैं। असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक यह तीन तो अक्षपादकथित पाँच हेत्वाभासों में भी आते ही हैं। प्रशस्तपाद ने अनभ्यवसित नामक चौथा हेत्वाभास बतलाया है जो न्यायसूत्र में नहीं है। अक्षपाद और कणाद उभय के अनुगामी 20. भासर्वज्ञ ने छः हेत्वाभास वर्णित किये हैं जो न्याय और वैशेषिक दोनों प्राचीन परम्परा का कुल जोड़ मात्र है। दिङ्नाग कर्तृक माने जानेवाले न्यायप्रवेश में५ प्रसिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक इन तीनों का ही संग्रह है। उत्तरवर्ती धर्मकीर्ति आदि सभी बौद्ध तार्किकों ने भी न्यायप्रवेश की ही मान्यता को दोहराया और स्पष्ट किया है। पुराने सांख्याचार्य माठर६ ने १ न्यायसू०१.२.४। २ "अप्रसिद्धोऽनपदेशोऽसन् संदिग्धश्चानपदेशः।"-वै० सू० ३.१.१५। ३ "एतेनासिद्धविरुद्धसन्दिग्धानध्यवसितवचनानाम् अनपदेशत्वमुक्तं भवति ।"-प्रश० पृ०२३८ । ४ "असिद्धविरुद्धानकान्तिकानध्यवसितकालात्ययापदिष्टप्रकरणसमाः।" न्यायसार पृ०७। ५ "असिद्धानैकान्तिकविरुद्धा हेत्वाभासाः।-न्यायप्र० प्र०३। ६ "अन्ये हेत्वाभासाः चतुर्दश असिद्धानैकान्तिकविरुद्धादयः ।"-माठर ५। ..... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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