Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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द्वितीयाध्याय ।
अ० २. प्रा० १. सू० १-२. पृ०४६. परार्थानुमान की चर्चा वैदिक, बौद्ध, जैन-तीनों परम्पराओं में पाई जाती है। यों तो स्वार्थ और परार्थ अनुमान का विभाग कणाद और न्यायसूत्र में सूचित होता है, फिर भी उपलभ्य प्रमाणग्रन्थों में परार्थ अनुमान का स्पष्ट
लक्षणनिर्देश प्रशस्तपाद और न्यायप्रवेश में ही प्राचीम जान पड़ता है । प्रशस्तपाद । के अनुगामी भासर्वज्ञ (न्यायसार पृ० ५) आदि सभी नैयायिकों ने प्रशस्तपाद के ही कथन को थोड़े हेर-फेर के साथ दुहराया है। न्यायप्रवेशगत परार्थानुमान सम्बन्धी जो लक्षणनिर्देश है, उसी को पिछले धर्मकीर्ति ( न्यायबि. ३. १), शान्तरक्षित ( तत्वसं. का०१३६३ ) आदि बौद्ध ताकिकों ने विशेष स्पष्ट करके कहा है। जहाँ तक मालूम है, जैन
परम्परा में परार्थ अनुमान के स्पष्ट लक्षण को बतलानेवाले सब से पहिले सिद्धसेन 10 दिवाकर ही हैं-न्याया० १३ । उनके मार्ग का पिछले जैन तार्किकों ने अनुसरण किया
है-परी० ३. ५५, प्रमाणन० ३. २३ । । प्रा० हेमचन्द्र ने परार्थ अनुमान के लक्षण प्रसङ्ग में मुख्यतया दो बातें ली हैं। पहलो तो उसका लक्ष्य-लक्षणनिर्देश, और दूसरी बात है शब्द में आरोप. से परार्थानुमानत्व के
व्यवहार का समर्थन । यह दोनों बातें वैदिक, बौद्ध और जैन सभी पूर्ववर्ती तर्कग्रन्थों में 16 पाई जाती हैं। आरोप का बीज, जो लक्षणा सम्बन्धी विचार करनेवाले पालङ्कारिक आदि
प्रन्थों में देखा जाता है, उसका स्पष्टीकरण भी आ० हेमचन्द्र ने पूर्ववर्ती प्राचार्यों की तरह ही किया है।
पृ० ४६. पं० ८. 'अचेतनं हि वचन'-तुलना-प्रमेयर० ३.५५-५६ । पृ० ४६. पं० ६. 'उपचारश्चात्र-तुलना-न्यायबि० टी० ३.२ ।
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अ० २. प्रा० १. सू० ३-६. पृ० ४६. प्रस्तुत चार सूत्रों में परार्थ अनुमान के प्रयोगद्वैविध्य की चर्चा है। परार्थ अनुमान का दो प्रकार का प्रयोग वैदिक, बौद्ध, जैन-तीनों परम्पराओं को मान्य है, पर वैदिक और बौद्ध दो परम्पराओं में साधर्म्य उदाहरण, वैधर्म्य उदाहरण, साधर्म्य उपनय, वैधर्म्य उपनय प्रादिकृत प्रयोगद्वैविध्य प्रसिद्ध है। हेतु के प्रयोग
१ "पञ्चावयवेन वाक्येन स्वनिश्चितार्थप्रतिपादनं परार्थानुमानम् ।"-प्रशस्त० पृ० २३१ । २ "तत्र पक्षादिवचनानि साधनम्"-न्यायप्र० पृ०१।
३"मुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढितोऽथ प्रयोजनात्। अन्योऽर्थो लक्ष्यते यत्सा लक्षणारोपिता क्रिया ॥"काव्यप्र०२.हाकाव्यानुशा०१.१७-१८।
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