Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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४० ४७.५० २४.]
भाषाटिप्पणानि । है कि इन्होंने जो दृष्टान्त की अनुमानाङ्गता का प्रतिषेध किया है वह सकलानुमान की दृष्टि से अर्थात् अनुमान मात्र में दृष्टान्त को वे अङ्ग नहीं मानते। सिद्धसेन ने भी यही भाव संक्षिप्त रूप में सूचित किया है-न्याया० २० । अतएव विचार करने पर बौद्ध और जैन तात्पर्य में कोई खास अन्तर नज़र नहीं पाता।
२-दृष्टान्त का सामान्य लक्षण न्यायसूत्र ( १.१.२५ ) में है पर बौद्ध ग्रन्थों में वह नहीं । देखा जाता। माणिक्यनन्दी ने भी सामान्य लक्षण नहीं कहा जैसा कि सिद्धसेन ने पर देवसूरि ( प्रमाणन०३.४० ) और प्रा० हेमचन्द्र ने सामान्य लक्षण भी बतला दिया है। न्यायसूत्र का दृष्टान्तलक्षण इतना व्यापक है कि अनुमान से भिन्न सामान्य व्यवहार में भी वह लागू पड़ जाता है जब कि जैनों का सामान्य दृष्टान्तलक्षण मात्र अनुमानोपयोगी है। साधर्म्यवैधर्म्य रूप से दृष्टान्त के दो भेद और उनके अलग अलग लक्षण न्यायप्रवेश (पृ० १, २ ), 10 न्यायावतार (का. १७, १८ ) में वैसे ही देखे जाते हैं जैसे परीक्षामुख (३. ४७ से) प्रादि (प्रमाणन० ३. ४१ से ) पिछले ग्रन्थों में।
३-दृष्टान्त के उपयोग के सम्बन्ध में जैन विचारसरणी ऐकान्तिक नहीं। जैन तार्किक । परार्थानुमान में जहाँ श्रोता अव्युत्पन्न हो वहीं दृष्टान्त का सार्थक्य मानते हैं। स्वार्थानुमान स्थल में भी जो प्रमावा व्याप्ति सम्बन्ध को भूल गया हो उसी को उसकी याद दिलाने के 15 वास्ते दृष्टान्त की चरितार्थता मानते हैं-स्याद्वादर० ३. ४२ ।
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