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प्रमाणमीमांसायाः
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ने 'नैयायिक-मीमांसकादयः' ऐसा सामान्य कथन करके किया है । न्यायशास्त्र में ज्ञायमान लिङ्ग की करयता का जो प्राचीन मत ( शायमानं लिङ्ग तु करण' न हि - मुक्ता ० का ० ६७) खण्डनीय रूप से निर्दिष्ट है उसका मूल शायद उसी षड्रूप हेतुवाद की परम्परा में हो ।
जैन परम्परा हेतु के एकरूप को ही मानती है और वह रूप है अविनाभावनियम । 5 उसका कहना यह नहीं कि हेतु में जो तीन या पाँच रूपादि माने जाते हैं वे असत् हैं । उसका कहना मात्र इतना ही है कि जब तीन या पाँच रूप न होने पर भी किन्हों हेतुओं से निर्विवाद सदनुमान होता है तब अविनाभावनियम के सिवाय सकलहेतुसाधारण दूसरा कोई लक्षण सरलता से बनाया ही नहीं जा सकता । अतएव तीन या पाँच रूप अविनाभावनियम के यथासम्भव प्रपश्वमात्र हैं । यद्यपि सिद्धसेन ने न्यायावतार में हेतु को 10 साध्याविनाभावी कहा है फिर भी अविनाभावनियम ही हेतु का एकमात्र रूप है ऐसा समर्थन करनेवाले सम्भवतः सर्वप्रथम पात्रस्वामी हैं । तत्व संग्रह में शान्तरक्षित ने जैनपरम्परासम्मत अविनाभावनियमरूप एक लक्षण का पात्रस्वामी के मन्वव्यरूप से ही निर्देश करके खण्डन किया है ? | जान पड़ता है पूर्ववर्ती अन्य जैनतार्किकों ने हेतु के 1. स्वरूप रूप से अविनाभावनियम का कथन सामान्यतः किया होगा । पर 15 उसका सयुक्तिक समर्थन और बौद्धसम्मत त्रैरूप्य का खण्डन सर्वप्रथम पात्रस्वामी ने
ही किया होगा ।
[ पृ० ३८. पं० १६
“अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।
नान्यथाऽनुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।।" -न्यायवि० पृ० ५०० ।
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यह खण्डनकारिका अकलङ्क, विद्यानन्द ( प्रमाणप० पृ० ७२ ) आदि ने उद्धृत की है वह पात्रस्वामिकतृक होनी चाहिए । पात्रस्वामी के द्वारा जो परसम्मत त्रैरूप्य का खण्डन जैन परम्परा में शुरू हुआ उसी का पिछले प्रकलङ्क ( प्रमाणसं० पृ० ६६ A ) आदि दिगंम्बरश्वेताम्बर तार्किक ने अनुसरण किया है। त्रैरूप्यखण्डन के बाद जैनपरम्परा में पाश्वरूप्य का भी खण्डन शुरू हुआ । अतएव विद्यानन्द ( प्रमाणप पृ० ७२ ), प्रभाचन्द्र (प्रमेयक० पृ० १०३ B), वादी देवसूरि (स्याद्वादर० पृ० ५२१ ) आदि के दिगम्बरीय-श्वेताम्बरीय पिछले तर्कमन्थों में 25 त्रैरूप्य और पाभ्वरूप्य का साथ ही सविस्तर खण्डन देखा जाता है ।
प्राचार्य हेमचन्द्र उसी परम्परा को लेकर त्रैरूप्य तथा पाथ्यरूप्य दोनों का निरास करते हैं । यद्यपि विषयदृष्टि से प्रा० हेमचन्द्र का खण्डन विद्यानन्द आदि पूर्ववर्ती प्राचार्यों के खण्डन के समान ही है तथापि इनका शाब्दिक साम्य विशेषतः अनन्तवीर्य की प्रमेयरत्नमाला के साथ है । अन्य सभी पूर्ववर्ती जैनतार्किकों से प्रा० हेमचन्द्र की एक विशेषता 30 जो अनेक स्थलों में देखी जाती है वह यहाँ भी है। 1 वह विशेषता - संक्षेप में भी किसी न
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१ “अन्यथेत्यादिना पात्रस्वामिमतमाशङ्कते - नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥" - तत्त्वसं० का० १३६४-६६ ।
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