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प्रमाणमीमांसायाः
[पृ० ४२. पं० १प्रकार१ मात्र निषेधसाधकरूप से वर्णित हैं, विधिसाधक रूप से एक भी अनुपलब्धि नहीं बतलाई गई है। अकलङ्क और माणिक्यनन्दी ने न्यायबिन्दु को अनुपलब्धि तो स्वीकृत की पर उसमें बहुत कुछ सुधार और वृद्धि की। धर्मकीर्ति अनुलब्धि शब्द से सभी अनुपलब्धियों
को या उपलब्धियों को लेकर एकमात्र प्रतिषेध की सिद्धि बतलाते हैं तब माणिक्यनन्दी अनुप5 लब्धि से विधि और निषेध उभय की सिद्धि का निरूपण करते हैं इतना ही नहीं बल्कि उप
लब्धि को भी वे विधि-निषेध उभयसाधक बतलाते हैं। विद्यानन्द का वर्गीकरण वैशेषिकसूत्र के आधार पर है। वैशेषिकसूत्र में अभूत भूत का, भूत अभूत का और भूत भूत का इस तरह त्रिविधलिङ्ग निर्दिष्ट है३ । पर विद्यानन्द ने उसमें अभूत अभूत का-यह एक
प्रकार बढ़ाकर चार प्रकारों के अन्तर्गत सभी विधिनिषेधसाधक उपलब्धियों तथा सभी 10 विधिनिषेधसाधक अनुपलब्धियों का समावेश किया है-प्रमाणप० पृ० ७२-७४ । इस विस्तृत
समावेशकरण में किन्हीं पूर्वाचार्यों की संग्रहकारिकाओं को उद्धृत करके उन्होंने सब प्रकारों की सब संख्याओं को निर्दिष्ट किया है मानो विद्यानन्द के वर्गीकरण में वैशैषिक. सूत्र के अलावा अकलङ्क या माणिक्यनन्दी जैसे किसी जैनतार्किक का या किसी बौद्ध तार्किक का प्राधार है।
देवसूरि ने अपने वर्गीकरण में परीक्षामुख के वर्गीकरण को ही आधार माना हुआ जान पड़ता है फिर भी देवसूरि ने इतना सुधार अवश्य किया है कि जब परीक्षामुख विधिसाधक छः उपलब्धियों (३.५६) और तीन अनुपलब्धियों (३.८६) को वर्णित करते हैं तब प्रमाणनयतत्वालोक विधिसाधक छ: उपलब्धियों (३.६४) का और पाँच अनुपलब्धियों
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१ "स्वभावानुपलब्धिर्यथा नाऽत्र धूम उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेरिति । कार्यानुपलब्धिर्यथा नेहाप्रतिबद्धसामर्थ्यानि धूमकारणानि सन्ति धूमाभावात् । व्यापकानुपलब्धिर्यथा नात्र शिंशपा वृक्षाभावात् । स्वभावविरुद्धोपलब्धिर्यथा नात्र शीतस्पर्शोऽग्नेरिति । विरुद्धकार्योपलब्धिर्यथा नात्र शीतस्पर्टी धूमादिति । विरुद्धव्याप्तोपलब्धिर्यथा न ध्रुवभावी भूतस्यापि भावस्य विनाशा हेत्वन्तरापेक्षणात् । कार्यविरुद्धोपलब्धिर्यथा नेहाप्रतिबद्धसामर्थ्यानि शीतकारणानि सन्ति अग्नेरिति । व्यापकविरुद्धोपलब्धिर्यथा नात्र तुषारस्पोऽग्नेरिति । कारणानुपलब्धिर्यथा नात्र धूमोऽग्न्यभावात् । कारणविरुद्धोपलब्धिर्यथा नास्य रोमहर्षादिविशेषाः सन्निहितदहनविशेषत्वादिति । कारण विरुद्धकार्योपलब्धिर्यथा न रोमहर्षादिविशेषयुक्तपुरुषवानयं प्रदेश धूमादिति ॥"-न्यायबि० २.३२-४२।
२ परी० ३. ५७-५६, ७८, ८६।
३ "विरोध्यभूतं भूतस्य । भूतमभूतस्य । भूतोऽभूतस्य ।"-वै० सू० ३. ११-१३। .. ..४ "अत्र संग्रहश्लोकाः- स्यात्कार्य कारणव्याप्यं प्राक्सहोत्तरचारि च। लिङ्ग तलक्षणव्याप्तेभूतं भूतस्य साधकं ॥ षोढा विरुद्धकार्यादि साक्षादेवोपवर्णितम् । लिङ्गं भूतमभूतस्य लिङ्गलक्षणयोगतः ॥ पारम्पर्यात्तु कार्य स्यात् कारणं व्याप्यमेव च। सहचारि च निर्दिष्ट प्रत्येकं तच्चतुर्विधम् ॥ कारणाद् द्विष्ठगर्यादिभेदेनोदाहृतं पुरा। यथा षोडशभेदं स्यात् द्वाविंशतिविधं ततः । लिङ्ग समुदितं शयमन्यथानुपपत्तिमत् । तथा भूतमभूतस्याप्यूहत्यमन्यदपीदृशम् ॥ अभूतं भूतमुन्नीतं भूतस्यानेकधा बुधेः। तथाऽभूतमभूतस्य यथायोग्यमुदाहरेत् ॥ बहुधाप्येवमाख्यातं संक्षेपेण चतुर्विधम् । अतिसंक्षेपतो द्वेधोपलम्भानुपलम्भभृत् ॥”-प्रमाणप० पृ०७४-७५ ।
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