Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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पृ० ४२.५० २४.]
भाषाटिप्पणानि। (३.६६) का वर्णन करता है। निषेधसाधकरूप से छः उपलब्धियों (३.७१) का और सात अनुपलब्धियों (३.७८) का वर्णन परीक्षामुख में है तब प्रमाणनयतस्वालोक में निषेधसाधक अनुपलब्धि (३.६०) और उपलब्धि (३.७६) दोनों सात सात प्रकार की हैं।
प्राचार्य हेमचन्द्र वैशेषिकसूत्र और न्यायविन्दु दोनों के आधार पर विद्यानन्द की तरह वर्गीकरण करते हैं फिर भी विद्यानन्द से विभिन्नता यह है कि आ० हेमचन्द्र के वर्गी- 5 करण में कोई भी अनुपलब्धि विधिसाधक रूप से वर्णित नहीं है किन्तु न्यायविन्दु की तरह मात्र निषेधसाधकरूप से वर्णित है। वर्गीकरण की अनेकविधता तथा भेदों की संख्या में न्यूनाधिकता होने पर भी तत्त्वत: सभी वर्गीकरणों का सार एक ही है। वाचस्पति मिश्र ने केवल बौद्धसम्मत वर्गीकरण का ही नहीं बल्कि वैशेषिकसूत्रगत वर्गीकरण का भी निरास । किया है-जात्पर्य० पृ० १५८-१६४ ।
10 पृ०४२. पं० ६. 'तद्विशेषस्य'-तुलना-"यदुत्पत्तिमत् तदनित्यमिति स्वभावभूतधर्मभेदेन स्वभावस्य प्रयोगः। यत् कृतकं तदनित्यमित्युपाधिभेदेन। अपेक्षितपरव्यापारो हि भाव: स्वभावनिष्पत्तौ कृतक इति। एवं प्रत्ययभेदभेदित्वादयो द्रष्टव्याः''-न्यायबि० ३. १२-१५ ।
. "यथा च कृतकशब्दो भिन्नविशेषणस्वभावाभिधाय्येवं प्रत्ययभेदभेदित्वमादिर्येषां प्रयत्नानन्तरीयकत्वादीनां तेऽपि स्वभावहेतोः प्रयोगा भिन्नविशेषणस्वभावाभिधायिनो द्रष्टव्याः ।"- 15 न्यायवि० टी० ३. १५ ।
पृ० ४२. पं० ६. 'पक्षादन्यस्यैव'-तुलना-"यैव चास्य साध्यधर्मिणि स्वसाध्याविना.. भाविता सैव गमकत्वे निबन्धनं नान्यधर्मिणि। स च स्वसाध्याविनाभावः प्रतिबन्धसाधकप्रमाणनिबन्धनो न सपक्षे क्वचिद् बहुलं वा सहभावमात्रदर्शननिबन्धनः, नहि लोहलेख्यं व पार्थिवत्वात् काष्ठादिवत् इति तदन्यत्र पार्थिवत्वस्य लोहलेख्यत्वाविनाभावापि तथाभावो भवति । 20 यदि च पक्षीकृतादन्यत्रैव व्याप्तिरादर्शयितव्येति नियमः तदा सत्त्वं कथं क्षणिकर्ता भावेषु प्रतिपादयेत् .... 'तस्मात्-स्वसाध्यप्रतिबन्धात् हेतुः तेन व्याप्त: सिद्धयति स च विपर्यये बाधकप्रमाणवृत्त्या साध्यधर्मिण्यपि सिद्धयति इति न किंचिद् अन्यत्रानुवृत्त्यपेक्षया । अत एवान्यत्र ( विनिश्चये ) उक्तम्-यत् क्वचिद् दृष्टं तस्य यत्र प्रतिबन्ध: तद्विदः तस्य तद् गमकं तत्रेति वस्तुगतिरिति ।" हेतुबि० टी० लि. पृ० १५ B, १६ B.
25 पृ० ४२. पं० २४. 'सूक्ष्मदर्शिनापि-कार्यलिङ्गक अनुमान को तो सभी मानते हैं पर कारणलिङ्गक अनुमान मानने में मतभेद है। बौद्धतार्किक खासकर धर्मकीर्ति कहीं भी कारणलिङ्गक अनुमान का स्वीकार नहीं करते पर वैशेषिक, नैयायिक दोनों कारणलिङ्गक अनुमान को प्रथम से ही मानते आये हैं। अपने पूर्ववर्ती सभी जैनतार्किको ने जैसे कारणलिङ्गक अनुमान का बड़े ज़ोरों से उपपादन किया है वैसे ही प्रा. हेमचन्द्र ने भी उसका उपपादन 30 किया है। प्रा० हेमचन्द्र न्यायवादी शब्द से धर्मकीर्ति को ही सूचित करते हैं। यद्यपि मा० हेमचन्द्र धर्मकीर्ति के मन्तव्य का निरसन करते हैं तथापि उनका धर्मकीर्ति के प्रति विशेष आदर है जो 'सूक्ष्मदर्शिनापि' इस शब्द से व्यक्त होता है।
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