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पृ० १५.० ११.]
भाषाटिप्पणानि ।
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पृ०. १४. पं० २३. 'वक्तृत्वात् ' - मीमांसक ने सर्वज्ञत्व के निषेध में वक्तृत्व, पुरुषत्वादि जिन हेतु का प्रयोग किया है उनकी असाधकता सर्वज्ञत्ववादी शान्तरक्षित ( तत्त्वसं ० का० ३३५६-३४६६ ), प्रकलङ्क ( अष्टश० प्रष्टसह ० पृ० ४४ ) और प्रभाचन्द्र ने (प्रमेयक० पृ० ७३ A ) अपने-अपने ग्रन्थों में बतलाई है पर उक्त तीनों आचार्यों का प्रसाधकत्वप्रदर्शन - प्रकार कुछ भिन्न-भिन्न है । वक्तृत्व हेतु के निरास का प्रकार प्रभाचन्द्र और प्रा० हेमचन्द्र का समान है ।
पृ०. १५. पं० ११. 'मनसेो द्रव्य ' - मन: पर्यायज्ञान ' स्वरूप के सम्बन्ध में दो पर म्पराएँ देखी जाती हैं । एक परम्परा मानती है कि मनःपर्यायज्ञान, परकीय मन से चिन्त्य - मान अर्थों को जानता है जब कि दूसरी परम्परा मानती है कि मनःपर्यायज्ञान चिन्तनव्यापृत मनद्रव्य के पर्यायों को साक्षात् जानता है और चिन्त्यमान पदार्थ तो पीछे से अनुमान के 100 द्वारा जाने जाते हैं, क्योंकि चिन्त्यमान पदार्थ मूर्त की तरह अमूर्त भी हो सकते हैं जिन्हें मन:पर्यायज्ञान विषय कर नहीं सकता ।
पहली परम्परा आवश्यक निर्युक्ति की गाथा ( ७६ )–
" मरणपञ्जवनाणं पुरण जरामरणपरिचिन्तियत्थपायडणं । माणुस खित्तनिबद्धं गुणपच्चयं चरितव || "
से तथा तत्त्वार्थभाष्य ( १. २६ ) के - " अवधिज्ञानविषयस्यानन्तभागं मनः पर्यायज्ञानी जानीते रूपिद्रव्याणि मनोरहस्य विचारगतानि च मानुषक्षेत्र पर्यापन्नानि विशुद्धतराणि चेति" - शब्दों से प्रकट होती है । दूसरी परम्परा विशेषावश्यकभाष्य गाथा (८१४ ) -
" दव्वमणेोपज्जा जाणइ पासइ य तग्गएणन्ते duraभासिए उण जाणइ बज्भेणुमाणाखेणं ||"
से तथा नन्दी चूर्ण - "मणियत्थं पुण पञ्चक्खं णो पेक्खइ, जेण मणणं मुत्तममुत्तं वा, य छउमत्थो तं श्रणुमाणता पेक्खइ ति" - पृ० १६ B. आदि से स्पष्ट होती है ।
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इन श्वेताम्बरीय दोनों परम्पराओं में से पहली ही एकमात्र परम्परा दिगम्बर सम्प्रदाय में पाई जाती है — "परकीयमनसि व्यवस्थितोऽर्थः अनेन ज्ञायते इत्येतावदत्रापेक्ष्यते”–सर्वार्थ 。 १ - २३ । गोम्मट ० जीव० गा० ४३७ । जान पड़ता है कि नियुक्ति और तत्त्वार्थभाष्यगत परम्परा 25 दिगम्बरीय साहित्य में सुरक्षित रही पर पीछे से साहित्यिक सम्बन्ध बिलकुल छूट जाने के ध्य चूर्णि आदि में विकसित दूसरी परम्परा का पक्षान्तर रूप से या खण्डनीय रूप से दिगम्बरीय ग्रन्थों में अस्तित्व तक न प्राया ।
कारण भाष्य
प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने पूर्ववर्ती तार्किक श्वेताम्बर श्राचार्यों की तरह इस जगह दूसरी परम्परा का ही अवलम्बन किया है । सच बात तो यह है कि पहली परम्परा उन 30 प्राचीन ग्रन्थों में निर्देशरूप से पाई जाती है सही, पर व्यवहार में सर्वत्र सिद्धान्तरूप से दूसरी परम्परा का ही अबलम्बन श्वेताम्बर आचार्य करते हैं। पहली परम्परा में दोषोद्भावन
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