Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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- प्रमाणमीमांसाया:
[पृ० २४: पं० ३०.... प्रमाणविषय के स्वरूपकथन में द्रव्य के साथ पर्यायशब्द का भी प्रयोग है। संस्कृत, प्राकृत, पाली जैसी शास्रीय भाषाओं में वह शब्द बहुत पुराना और प्रसिद्ध है पर जैन दर्शन में उसका जो पारिभाषिक अर्थ है वह अर्थ अन्य दर्शनों में नहीं देखा जाता। उत्पादविनाशशाली या आविर्भाव-तिरोभाववाले जो धर्म, जो विशेष या जो अवस्थाएँ द्रव्यगत होती 5 हैं वे ही पर्याय या परिणाम के नाम से जैन दर्शन में प्रसिद्ध हैं जिनके वास्ते न्याय-वैशेषिक
प्रादि दर्शनों में गुण शब्द प्रयुक्त होता है। गुण, क्रिया आदि सभी द्रव्यगत धर्मों के अर्थ में प्रा० हेमचन्द्र ने पर्यायशब्द का प्रयोग किया है पर गुण तथा पर्याय शब्द के बारे में जैन दर्शन का इतिहास खास ज्ञातव्य है।
भगवती आदि प्राचीनतर आगमों में गुण और पर्याय दोनों शब्द देखे जाते हैं। 10 उत्तराध्ययन ( २८. १३ ) में उनका अर्थभेद स्पष्ट है। कुन्दकुन्द, उमास्वाति (तत्त्वार्थ० ५. ३७)
और पूज्यपाद ने भी उसी अर्थभेद का कथन एवं समर्थन किया है। विद्यानन्द ने भी अपने तर्कवाद से उसी भेद का समर्थन किया है पर विद्यानन्द के पूर्ववर्ती अकलङ्क ने गुण और पर्याय के अर्थों का भेदाभेद बतलाया है जिसका अनुकरण अमृतचन्द्र ने भी
किया है और वैसा ही भेदाभेद समर्थन तत्त्वार्थभाष्य की टीका में सिद्धसेन ने भी किया है। 15 इस बारे में सिद्धसेन दिवाकर का एक नया प्रस्थान जैन तत्त्वज्ञान में शुरू होता है जिसमें
गुण और पर्याय दोनों शब्दों को केवल एकार्थक ही स्थापित किया है और कहा है कि वे दोनों शब्द पर्याय मात्र हैं। दिवाकर की अभेद समर्थक युक्ति यह है कि आगमों में गुणपद का यदि पर्याय पद से भिन्न अर्थ अभिप्रेत होता तो जैसे भगवान् ने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक
दो प्रकार से देशना की है वैसे वे तीसरी गुणार्थिक देशना भी करते । जान पड़ता है इसी 20 युक्ति का असर हरिभद्र पर पड़ा जिससे उसने भो अभेदवाद ही मान्य रक्खा। यद्यपि
देवसूरि ने गुण और पर्याय दोनों के अर्थभेद बतलाने की चेष्टा की ( प्रमाणन० ५.७, ८) है फिर भी जान पड़ता है उनके दिल पर भी अभेद का ही प्रभाव है। प्रा० हेमचन्द्र ने तो विषयलक्षण सूत्र में गुणपद को स्थान ही नहीं दिया और न गुण-पर्याय शब्दों के अर्थ
विषयक भेदाभेद की चर्चा ही की। इससे प्रा० हेमचन्द्र का इस बारे में मन्तव्य स्पष्ट हो 25 जाता है कि वे भी अभेद के ही समर्थक हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने भी इसी अभेद
पक्ष को स्थापित किया है। इस विस्तृत इतिहास से इतना कहा जा सकता है कि आगम जैसे प्राचीन युग में गुण-पर्याय दोनों शब्द प्रयुक्त होते रहे होंगे। तर्कयुग के प्रारम्भ और विकास के साथ ही साथ उनके अर्थविषयक भेद अभेद की चर्चा शुरू हुई और आगे बढ़ी।
फलस्वरूप भिन्न-भिन्न प्राचार्यों ने इस विषय में अपना भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्दु प्रकट किया 30 और स्थापित भी किया ।।
इस प्रसङ्ग में गुण और पर्याय शब्द के अर्थविषयक पारस्परिक भेदाभेद की तरह पर्याय-गुण और द्रव्य इन दोनों के पारस्परिक भेदाभेद विषयक चर्चा का दार्शनिक इतिहास
१ इस विषय के सभी प्रमाण के लिए देखो ‘सन्मतिटी० पृ० ६३१. टि०४।
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