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प्रमाणमीमांसायाः
[पृ०.३३. पं० २३स्मृति को प्रमाण मानने के पक्ष में नहीं है अतएव उसे प्रमा कहना योग्य नहीं। वे प्रमा की व्याख्या करते समय स्मृतिभिन्न ज्ञान को लेकर हो विचार करते हैं- तात्पर्य पृ० २० । उदयनाचार्य ने भी स्मृति को प्रमाण न माननेवाले सभी पूर्ववर्ती तार्किको की युक्तियों का निरास करके अन्त में वाचस्पति मिश्र के तात्पर्य का अनुसरण करते हुए यही कहा है कि अनपेक्ष होने के कारण अनुभव ही प्रमाण कोटि में गिना जाना चाहिए, स्मृति नहीं; क्योकि वह अनुभवसापेक्ष है और ऐसा मानने का कारण लोकव्यवहार हो है । . बौद्धदर्शन स्मृति को प्रमाण नहीं मानता। उसकी युक्ति भी मीमांसक या वैशेषिक जैसीहो है अर्थात् स्मृति गृहीतग्राहिणी होने से ही प्रमाण नहीं-तत्त्वसं० ५० का. १२९८ । फिर भी इस मन्तव्य के बारे में जैसे न्याय वैशेषिक आदि दर्शनों पर मीमांसा-धर्मशास्त्र10 का प्रभाव कहा जा सकता है वैसे बौद्ध-दर्शन पर कहा नहीं जा सकता क्योंकि वह वेद का
ही प्रामाण्य नहीं मानता। विकल्पज्ञानमात्र को प्रमाण न मानने के कारण बौद्ध दर्शन में स्मृति का प्रामाण्य प्रसक्त हो नहीं है। ___ जैन तार्किक स्मृति को प्रमाण न माननेवाले भिन्न-भिन्न उपर्युक्त दर्शनों की गृहीतमाहित्य,
अनर्थजत्व, लोकव्यवहाराभाव प्रादि सभी युक्तियों का निरास करके केवल यही कहते हैं, 15 कि जैसे संवादी होने के कारण प्रत्यक्ष प्रादि प्रमाण कहे जाते हैं वैसे ही स्मृति को भी
संवादी होने ही से प्रमाण कहना युक्त है। इस जैन मन्तव्य में कोई मतभेद नहीं। माचार्य हेमचन्द्र ने भी स्मृतिप्रामाण्य की पूर्व जैन परम्परा का ही अनुसरण किया है।
स्मृतिज्ञाम का अविसंवादित्व सभी को मान्य है। वस्तुस्थिति में मतभेद न होने पर भी मतभेद केवल प्रमा शब्द से स्मृतिज्ञान का व्यवहार करने न करने में है । 20: पृ०. ३३. पं०. २३. 'साच प्रमाणम्'-तुलना.. "अक्षधीस्मृतिसंज्ञाभिश्चिन्तयाभिनिबोधिः।
व्यवहाराविसंवादः तदाभासस्ततोऽन्यथा ॥"-लघी० ४.४ । प्रमाणप० पृ० ६६ । अष्टस• पृ० २७६ । प्रमेयक• ६६ A| स्याद्वादर० पृ० ४८७ । प्रमेयर० २.२।।
पृ०. ३४. पं०.४. 'नाननुकृतान्वय-निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को स्वलक्षणजन्य ही 25 मानकर प्रमाण माननेवाले सौत्रान्तिक आदि बौद्धों का सिद्धान्त है कि विषयता कारणता
१ "कथं तर्हि स्मृतेर्व्यवच्छेदः । अननुभवत्वेनैव । यथार्थो हत्यनुभवः प्रमेति प्रामाणिकाः पश्यन्ति। 'तत्त्वज्ञानाद' इति सूत्रणात् । अव्यभिचारि ज्ञानमिति च। ननु स्मृतिः प्रमैव किं न स्याद यथार्थज्ञानत्वात् प्रत्यक्षाद्यनुभूतिवदिति चेत् । न । सिद्धे व्यवहारे निमित्तानुसरणात्। न च स्वेच्छाकल्पितेन निमित्तेन लोकव्यवहारनियमनम् , अव्यवस्थया लोकव्यवहारविप्लवप्रसङ्गात्। न च स्मृतिहेतौ प्रमाणाभियुक्तानां महर्षीणां प्रमाणव्यवहारोऽस्ति, पृथगनुपदेशात् ।"-न्यायकु०४.१।
२“गृहीतग्रहणान्नेष्टं सांवृतं ....."-(सांवृतम्-विकल्पज्ञानम्-मनोरथ०) प्रमाणवा०२.५।
३ "तथाहि-अमुष्याऽप्रामाण्यं कुतोऽयमाविष्कुर्वीत, किं गृहीतार्थग्राहित्वात्, परिच्छित्तिविशेषाभावात् , असत्यातीतेथे प्रवर्तमानत्वात्, अर्थादनुत्पद्यमानत्वात् , विसंवादकत्वात् , समारोपाव्यवच्छेदकत्वात् , प्रयोजनाप्रसाधकत्वात् वा!"-स्याद्वादर० ३. ४।
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