________________
पृ० ३३. पं० २३.]
भाषाटिप्पणानि । ... स्मृत्यात्मक ज्ञान में प्रमाण शब्द का प्रयोग करने न करने का जो मतभेद देखा जाता है इसका बोज धर्मशास्त्र के इतिहास में है। वैदिक परम्परा में धर्मशास्त्र रूप से वेद अर्थात् श्रुति का ही मुख्य प्रामाण्य माना जाता है। मन्वादिस्मृतिरूप धर्मशास प्रमाण हैं सही पर उनका प्रामाण्य श्रुतिमूलक है। जो स्मृति श्रुतिमूलक है या श्रुति से अविरुद्ध है वही प्रमाण है अर्थात् स्मृति का प्रामाण्य श्रुतिप्रामाण्यतन्त्र है स्वतन्त्र नहीं । धर्मशास्त्र के 5 प्रामाण्य की इस व्यवस्था का विचार बहुत पुराने समय से मीमांसादर्शन ने किया है। जान पड़ता है जब स्मृतिरूप धर्मशास्त्र को छोड़कर भी स्मृतिरूप ज्ञानमात्र के विषय में प्रामाण्यविषयक प्रश्न मीमांसकों के सामने आया तब भी उन्होंने अपना धर्मशाखविषयक उस सिद्धान्त का उपयोग करके एक साधारण ही नियम बाँध दिया कि स्मृतिज्ञान स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है, उसका प्रामाण्य उसके कारणभूत अनुभव के प्रामाण्य पर निर्भर है अत- 10 एव वह मुख्य प्रमाणरूप से गिनी जाने योग्य नहीं। सम्भवत: वैदिक धर्मजीवी मीमांसा दर्शन के इस धर्मशास्त्रीय या तत्त्वज्ञानीय निर्णय का प्रभाव सभी न्याय, वैशेषिक, सांख्यर, योग आदि इतर वैदिक दर्शनों पर पड़ा है। अतएव वे अपने अपने मन्तव्य की पुष्टि में चाहे युक्ति भिन्न-भिन्न बतलावें फिर भी वे सभी एक मत से स्मृतिरूप ज्ञान में प्रमाण शब्द का व्यवहार न करने के ही पक्ष में हैं।
15 . कुमारिल आदि मीमांसक कहते हैं कि स्मृतिज्ञान अनुभव द्वारा ज्ञात विषय को ही उपस्थित करके कृतकृत्य हो जाने के कारण किसी अपूर्व अर्थ का प्रकाशक नहीं, वह केवल गृहीतग्राही है और इसी से वह प्रमाण नहीं३ । प्रशस्तपाद के अनुगामी श्रीधर ने भी उसी मीमांसक की गृहीतग्राहित्ववाली युक्ति का अवलम्बन करके स्मृति को प्रमाणबाय माना है--कन्दली पृ. २५७। पर अक्षपाद के अनुगामी जयन्त ने दूसरी ही युक्ति बतलाई है। 20 वे कहते हैं कि स्मृतिज्ञान विषयरूप अर्थ के सिवाय ही उत्पन्न होने के कारण अनर्थज होने से प्रमाण नहीं । जयन्त की इस युक्ति का निरास श्रीधर ने किया है। अक्षपाद के ही अनुगामी वाचस्पति मिश्र ने तीसरी युक्ति दी है। वे कहते हैं कि लोकव्यवहार
१ "पारतन्यात् स्वतो नैषां प्रमाणत्वावधारणा। अप्रामाण्यविकल्पस्तु द्रढिम्नैव विहन्यते ॥ पूर्वविज्ञानविषयं विज्ञानं स्मृतिरुच्यते । पूर्वज्ञानाद्विना तस्याः प्रामाण्यं नावधार्यते ॥"-तन्त्रवा० पृ० ६६ ।
२ "एतदुक्त भवति-सर्वे प्रमाणादयोऽनधिगतमर्थ सामान्यतः प्रकारतो वाऽधिगमयन्ति, स्मृतिः पुनर्न पूर्वानुभवमर्यादामतिकामति, तद्विषया तदूनविषया वा, न तु तदधिकविषया, सोऽयं वृत्त्यन्तराद्विशेषः स्मृतेरिति विमृशति ।"-तत्त्ववै०१.११।
३ "तत्र यत् पूर्वविज्ञानं तस्य प्रामाण्यमिष्यते। तदुपस्थानमात्रेण स्मृतेः स्याचरितार्थता ॥"श्लोकवा० अनु० श्लो०१६०। प्रक्ररणप० पृ० ४२।।
४ "न स्मृतेरप्रमाणत्वं गृहीतग्राहिताकृतम्। अपि त्वनर्थजन्यत्वं तदप्रामाण्यकारणम् ।।"न्यायम० पृ०२३।
५ "ये त्वनर्थजत्वात् स्मृतेरप्रामाण्यमाहुः तेषामतीतानगतविषयस्यानुमानस्याप्रामाण्यं स्यादिति दूषणम् ॥"-कन्दली० पृ०२५७ ।
10
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org