Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 236
________________ 15 20 ७८ प्रमाणमीमांसायाः पृ० ३६. पं० २१. 'उपलम्भः प्रमाणमात्र' - - तुलना - प्रमेयक० पृ० १०० B. । 25 द्वादर० ३.७ । प्रमेयर० ३.१२ । समर्थ सन्निहितविषय पृ० ३६. पं० २४. 'न चायं व्याप्तिग्रहः - "नं हि प्रत्यक्षं यावान्कश्चिद्धूमः कालान्तरे देशान्तरे च पावकस्यैव कार्य नार्थान्तरस्येति इयता व्यापारान कतु 5 बलात्पत्तेरविचारकत्वात् " - लघी० स्ववि० ३. २ । अष्टस० पृ० २८० । यक० पृ० १०० B स्याद्वादर० पृ० ५०६ । प्रमेयर० २. २ । प्रमाणप० पृ० ७० । प्रमे पृ० ३७. पं० ५. 'अनुमानान्तरेण' - तुलना - श्लोकवा • अनु० श्लो० १५१ - १५३ । हेतुबि० टी० लि० पृ० २५ । पृ० ३७. पं० ७. 'तर्हि तत्पृष्ठ’- तुलना-" यस्यानुमानमन्तरेण सामान्यं न प्रतीयते भवतु 10 तस्यायं दोषोऽस्माकं तु प्रत्यक्ष पृष्ठभाविनापि विकल्पेन प्रकृतिविभ्रमात् सामान्यं प्रतीयते ।"हेतुबि० टी० लि० पृ० २५ B। " देशकालव्यक्तिव्यप्त्या च व्याप्तिरुच्यते । यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र अग्निरिति। प्रत्यक्षपृष्ठश्च विकल्पो न प्रमाणं प्रमाणव्यापारानुकारी त्वसौ इष्यते”- मनोरथ ० १०७ । पृ० ३७. पं० ११. ' षण्ढात्तनयदोहद : ' - तुलना - " साध्याभिलाष इत्येवं षण्ठात्तनयदोहदः । ” 'न्यायम० पृ० १११ । पृ० ३७. पं० ११. 'एतेन - अनुपलम्भात्'- -- तुलना“प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यां न तावत्तत्प्रसाधनम् । तयोः सन्निहितार्थत्वात् त्रिकालागोचरत्वतः ।। १५३ ।। कारणानुपलम्भाच्चेत् कार्यकारणतानुमा । व्यापकानुपलम्भाच्च व्याप्यव्यापकतानुमा ॥ १५४ ॥ तद्वयाप्तिसिद्धिरप्यन्यानुमानादिति न स्थितिः । परस्परमपि व्याप्तिसिद्धावन्योन्यसंश्रयः ॥ १५५ ॥” प्रमाणप० पृ० ६६ । प्रमेयर० पृ० ३८. ३६ । तत्त्वार्थश्लो० १. १० । [ पृ० ३६. ०२१ ست पृ० ३७. पं० १५. 'वैशेषिकास्तु'- - तुलना - प्रमेयर० पृ० ३६ । प्रमाणप० पृ० ६६ । पृ० ३७. पं० २०. ' योगास्तु' - तुलना - तात्पर्य ० पृ० १३१, १६७ । Jain Education International पृ० ३८. पं० ३. 'व्याप्तिः ' - आगे दसवें सूत्र में अविनाभाव का लक्षण है जो वस्तुत: व्याप्ति ही है फिर भी तर्क लक्षण के बाद तर्कविषयरूप से निर्दिष्ट व्याप्ति का लक्षण इस सूत्र के द्वारा आ० हेमचन्द्र ने क्यों किया ऐसा प्रश्न यहाँ होता है। इसका खुलासा यह है कि हेतुविन्दुविवरण में अर्चट ने प्रयोजन विशेष बतलाने के वास्ते व्याप्यधर्मरूप से और व्यापकधर्मरूप से भिन्न भिन्न व्याप्तिस्वरूप का निदर्शन बड़े आकर्षक ढङ्ग से किया है जिसे देखकर 30 प्रा० हेमचन्द्र की चकोर दृष्टि उस अंश को अपनाने का लाभ संवृत कर न सकी । आ० For Private & Personal Use Only स्या www.jainelibrary.org

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