Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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पृ० २८. पं० १७. ]
भाषाटिप्पणानि ।
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हैं । बौद्ध दर्शन उसे अभिन्न कहता है? जब कि जैन दर्शन अपनी अनेकान्त प्रकृति के अनुसार फल - प्रमाण का भेदाभेद बतलाता है ३ ।
फल के स्वरूप के विषय में वैशेषिक, नैयायिक और मीमांसक सभी का मन्तव्य एकसा ही है४ । वे सभी इन्द्रियव्यापार के बाद होनेवाले सन्निकर्ष से लेकर हानोपादानापेचाबुद्धि तक के क्रमिक फलों की परम्परा को फल कहते हुए भी उस परम्परा में से पूर्व पूर्व 5 फल को उत्तर उत्तर फल की अपेक्षा से प्रमाण भी कहते हैं अर्थात् उनके कथनानुसार इन्द्रिय तो प्रमाण ही है, फल नहीं और हानोपादानापेचाबुद्धि जो अन्तिम फल है वह फल ही है प्रमाण नहीं | पर बीच के सन्निकर्ष, निर्विकल्प और सविकल्प ये तीनों पूर्व प्रमाण की अपेक्षा से फल और उत्तरफल की अपेक्षा से प्रमाण भी हैं । इस मन्तव्य में फल प्रमाण कहलाता है पर वह स्वभिन्न उत्तरफल की अपेक्षा से । इस तरह इस मत में 10 प्रमाण- फल का भेद स्पष्ट ही है । वाचस्पति मिश्र ने इसी भेद को ध्यान में रखकर सांख्य प्रक्रिया में भी प्रमाण और फल की व्यवस्था अपनी कौमुदी में की है५ ।
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बौद्ध परम्परा में फल के स्वरूप के विषय में दो मन्तव्य हैं- पहला विषयाधिगम को और दूसरा स्वसंवित्ति को फल कहता है । यद्यपि दिङ्नागसंगृहीत इन दो मन्तव्यों में से पहले का ही कथन और विवरण धर्मकीर्त्ति तथा उनके टीकाकार धर्मोत्तर ने किया है 15 तथापि शान्तरक्षित ने उन दोनों बौद्ध मन्तव्यों का संग्रह करने के अलावा उनका सयुक्तिक उपपादन और उनके पारस्परिक अन्तर का प्रतिपादन भी किया है। शान्तरक्षित और उनके शिष्य कमलशील ने यह स्पष्ट बतलाया है कि बाह्यार्थवाद, जिसे पार्थसारथि मिश्र ने सौत्राति का कहा है उसके मतानुसार ज्ञानगत विषयसारूप्य प्रमाण है और विषयाधिगति फल, जब कि विज्ञानवाद जिसे पार्थसारथि ने योगाचार का कहा है उसके मतानुसार ज्ञानगत 20 स्वसंवेदन ही फल है और ज्ञानगत तथाविध योग्यता ही प्रमाण है । यह ध्यान में रहे कि बौद्ध मतानुसार प्रमाण और फल दोनों ज्ञानगत धर्म हैं और उनमें भेद न माने जाने के कारण वे अभिन्न कहे गये हैं । कुमारिल ने इस बौद्धसम्मत प्रभेदवाद का खण्डन
१ श्लोकवा० प्रत्यक्ष० लो०७४, ७५ । २ प्रमाणसमु० १.६ ।
न्यायबि० टी० १. २१ ।
३ "करणस्य क्रियायाश्च कथंचिदेकत्वं प्रदीपतमाविगमवत् नानात्वं च परश्वादिवत् " - अष्टश० अष्टस० प० २८३-२८४ ।
४ " यदा सन्निकर्षस्तदा ज्ञानं प्रमितिः यदा ज्ञानं तदा हानोपादानापेक्षा बुद्धयः फलम् ।" - न्यायभा० १. १. ३ । श्लोकवा० प्रत्यक्ष० श्लो०५६-७३ | प्रकरण प० पृ० ६४ । कन्दली पृ० १६८-६ ।
५ सांख्यत० का० ४ ।
६ प्रमाणसमु० १. १०-१२। लो० न्याय० पृ० १५८ - १५६ ।
७ न्यायवि० १. १८ - १६ ।
८ " विषयाधिगतिश्चात्र प्रमाणफलमिष्यते । स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा ॥ " - तत्त्वसं० का० १३४४ । लो० न्याय० पृ० १५८-१५६ ।
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