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प्रमाणमीमांसाया: [पृ० २८. पं० १७(श्लोकवा. प्रत्यक्ष श्लो०७४ से) करके जो वैशेषिक-नैयायिक के भेदवाद का अभिमतरूप से स्थापन किया है उसका जवाब शान्तरक्षित ने अक्षरश: देकर बौद्धसम्मत अभेदवाद की युक्तियुक्तता दिखाई है-तत्त्वसं० का. १३४० से।
- जैन परम्परा में सबसे पहिले तार्किक सिद्धसेन और समन्तभद्र ही हैं जिन्होंने लौकिक । दृष्टि से भी प्रमाण के फल का विचार जैन परम्परा के अनुसार व्यवस्थित किया है। उक्त दोनों प्राचार्यों का फलविषयक कथन शब्द और भाव में समान ही है-न्याया• का. २८. आप्तमी० का० १०२ । दोनों के कथनानुसार प्रमाण का साक्षात् फल तो अज्ञाननिवृत्ति ही है। पर व्यवहित फल यथासंभव हानोपादानापेक्षाबुद्धि है। सिद्धसेन और समन्तभद्र के कथन में
तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं10१ -अज्ञानविनाश का फलरूप से उल्लेख, जिसका वैदिक-बौद्ध परंपरा में निर्देश नहीं
देखा जाता। २--वैदिक परम्परा में जो मध्यवर्ती फलों का सापेक्ष भाव से प्रमाण और फल रूप से कथन है उसके उल्लेख का अभाव, जैसा कि बौद्ध तर्कप्रन्थों में भी है। ३--प्रमाण और फल के भेदाभेद विषयक कथन का प्रभाव । सिद्धसेन और समन्तभद्र के बाद प्रकलङ्क
ही इस विषय में मुख्य देखे जाते हैं जिन्होंने सिद्धसेन-समन्तभद्रदर्शित फलविषयक जैन 15 मन्तव्य का संग्रह करते हुए उसमें अनिर्दिष्ट दोनों अंशों की स्पष्टतया पूर्ति की, अर्थात्
प्रकलङ्क ने प्रमाण और फल के भेदाभेदविषयक जैनमन्तव्य को स्पष्टतया कहा ( अष्टश० अष्टस० पृ० २८३-४ ) और मध्यवर्ती फलों को प्रमाण तथा फल उभयरूप कहने की वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक की सापेक्ष शैली को जैन प्रक्रिया के अनुसार घटाकर उसका
स्पष्ट निर्देश किया । माणिक्यनन्दी (परी०५; ६.६७ से ) और देवसूरि ने (प्रमाणन० ६.३ से) 20 अपने-अपने सूत्रों में प्रमाण का फल बतलाते हुए सिर्फ वही बात कही है. जो सिद्धसेन और
समन्तभद्र ने। अलबत्ता उन्होंने अकलङ्कनिर्दिष्ट प्रमाण-फल के भेदाभेद का जैन मन्तव्य सूत्रित किया है पर उन्होंने मध्यवर्ती फलों को सापेक्षभाव से प्रमाण और फल कहने की अकलङ्कसूचित जैनशैली को सूत्रित नहीं किया। विद्यानन्द की तीक्ष्ण दृष्टि अज्ञाननिवृत्ति
और स्व-परव्यवसिति शब्द की ओर गई। योगाचार और सौत्रान्तिक सिद्धान्त के अनुसार 25 प्रमाण के फलरूप से फलित होनेवाली स्व और पर व्यवसिति को ही विद्यानन्द ने अज्ञान
निवृत्तिरूप बतलाया (तत्त्वार्थश्ला० पृ० १६८; प्रमाणप० पृ. ७६) जिसका अनुसरण प्रभाचन्द्र ने मार्तण्ड में और देवसूरि ने रत्नाकर में किया। अब तक में जैनतार्किकों का एक स्थिरसा मन्तव्य ही हो गया कि जिसे सिद्धसेन-समन्तभद्र ने अज्ञाननिवृत्ति कहा है वह वस्तुतः
स्व-परव्यवसिति ही है। 30 प्रा. हेमचन्द्र ने प्रस्तुत चर्चा में पूर्ववर्ती सभी जैनतार्किकों के मतों का संग्रह तो
किया ही है पर साथ ही उसमें अपनी विशेषता भी दिखाई है। उन्होंने प्रभाचन्द्र और
णत्वं फल स्यादुत्तरोत्तरम् ।।'
१ "बहाद्यवग्रहाद्यष्टचत्वारिंशत् स्वसंविदाम । लघी०१.६।
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