Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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प्रमाणमीमांसायाः
[पृ० २८. पं० २सामान्यरूप से दार्शनिक क्षेत्र में यह मान्यता रूढ़ है कि जैनदर्शन ही अनेकान्तवादी है प्रतएव जैसे जैनेतर दार्शनिक अपने दर्शनों में लभ्य अनेकान्त विचार की ओर दृष्टि दिये बिना ही अनेकान्त को मात्र जैनवाद समझकर उसका खण्डन करते हैं वेसे ही जैनाचार्य
भी उस बाद को सिर्फ़ अपना ही मानकर उस खण्डन का पूरे ज़ोर से जवाब देते हुए अनेकान्त 5 का विविधरूप से स्थापन करते आए हैं जिसके फलस्वरूप जैन साहित्य में नय, सप्तभङ्गो, निक्षेप, अनेकान्तादि समर्थक एक बड़ी स्वतन्त्र ग्रन्थ-राशि बन गई हैं । अनेकान्त के ऊपर जैनेतर तार्किकों के द्वारा दिये गये दूषणों का उद्धार करते हुए जैनाचार्य ऐसे पाठ दोषों का उल्लेख करते हैं। जहाँ तक देखने में आया है उन आठ दोषों में से तीन दोषों का
स्पष्ट रूप से नामनिर्देश तो शङ्कराचार्यकृत खण्डन ( २. २. ३३ ) और तत्त्वसंग्रहकृत खण्डन 10 ( का० १७०६ ) से मिलता है पर उन पाठों दोषों का स्पष्ट नामनिर्देश किसी एक जगह या
भिन्न भिन्न स्थान में मिलाकर के देखा नहीं जाता। सम्भव है कोई अनेकान्त के खण्डनवाला ऐसा भी ग्रन्थ रहा हो जिसमें उन आठ दोषों का स्पष्ट नामनिर्देश रहा हो। और यह भी हो सकता है कि ऐसे आठ दोषों के अलग-अलग नाम और उनके लक्षण किसी प्रन्थ में
प्राये न हों। सिर्फ अनेकान्त खण्डन परायण विचारशैलो और भाषा रचना को देखकर 15 उस खण्डन में से अधिक से अधिक फलित होनेवाले आठ दोषों के नाम और लक्षण जवाब
देने के वास्ते स्वयं ही अलग छाँटकर जैनाचार्यो ने उनका युक्तिपूर्ण निरसन किया हो। कुमारिल नेरे अनेकान्त के ऊपर विरोध और संशय इन दो दोषों की सम्भावना कर के ही उनका निवारण किया है। शङ्कराचार्य के खण्डन में (ब्र० शांकरभा० २. २. ३३) मुख्यतया
उक्त दो ही दोष फलित होते हैं। शान्तरक्षित के खण्डन में उक्त दो दोषों के अलावा सङ्कर20 नामक ( तत्त्वसं० का. १७२२ ) तीसरे दोष का स्पष्ट निर्देश है।
__ अनेकान्तवाद के ऊपर प्रतिवादियों के द्वारा दिये गये दोषों का उद्धार करनेवाले जैनाचार्यो में व्यवस्थित और विश्लेषणपूर्वक उन दोषों के निवारण करनेवाले सबसे प्रथम प्रकलङ्क और हरिभद्र ही जान पड़ते हैं। इनका अनुगमन पिछले सभी जैन विद्वानों ने किया है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने भो उसी मार्ग का अनुसरण करके आठ दोषों का उद्धार 25 किया है और स्याद्वाद को एक पूर्ण और निर्दोष वाद स्थापित किया है।
__ असल में स्यात्पद युक्त होने के कारण केवल सप्तभङ्गो का ही नाम स्याद्वाद है। व्यवहार, निश्चय, नैगम, संग्रह आदि नय ये सब नयवाद के अन्तर्गत हैं। स्याद्वाद और
१ उदाहरणार्थ-सन्मतितर्क, श्राप्तमीमांसा, नयचक्र, तत्त्वार्थराजवा०-प्रथम अध्याय का ६ठा सूत्र तथा चतुर्थाध्याय का अन्तिम सूत्र, अनेकान्तजयपताका, अनेकान्तप्रवेश, स्याद्वादरत्नाकर-५वाँ. ७वाँ परि. अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, नयप्रदीप, नयोपदेश, नयरहस्य, अनेकान्तव्यवस्था, सप्तभङ्गीतरङ्गिणी आदि ।
२ प्रमाणसं.लि. पृ०६५ AI ३ श्लोकवा० श्राकृ०५४, वन०७६-८०।। ४ प्रमाणसं० लि. पृ०६५ A । अनेकाज०टी०पृ० ३० से। शास्त्रवा० ७. ३४-३८ ।
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