Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 221
________________ पृ० २८. पं० २.] भाषाटिप्पणानि । शङ्करादि जैसे दार्शनिकर भी जैनों को ही स्याद्वादी समझते व कहते हैं, मीमांसक सांख्य मादि को नहीं। इसका सबब यह जान पड़ता है कि एक तो जैनदर्शन में स्याद्वादस्थापन विषयक जितना और जैसा प्रचुर साहित्य बना वैसा मीमांसक, सांख्यादि दर्शन में नहीं है। और दूसरा सबब यह है कि सांख्य, योग आदिर दर्शनों में प्रात्मा जो तत्वज्ञान का मुख्य चिन्त्य विषय है उसको छोड़कर ही प्रकृति परमाणु आदि में नित्यानित्यत्व का चिन्तन 5 किया है, जब कि जैनदर्शन में जड़ की तरह चेतन में भी तुल्यरूप से नित्यानित्यत्वादि का समर्थन किया है। जान पड़ता है जैनेतर तार्किकों ने जो अनेकान्तवाद का खंडन शुरू किया वह उस वाद के जैन आचार्यों के द्वारा प्राकृत भागों में से संस्कृतरूप में अवतीर्ण होने के बाद ही। और यह भी जान पड़ता है कि अनेकान्तवाद के खण्डन करनेवाले जैनेतर तार्किकों में सबसे 10 पहिले बौद्ध ही रहे हैं । बौद्ध विद्वानों के द्वारा किये गये अनेकान्त का खण्डन देखकर ही वैदिक विद्वान उस खण्डन की ओर विशेष अग्रसर हुए । ब्रह्मसूत्रगत अनेकान्तवाद का खण्डन यदि सचमुच असल में जैनदर्शन को ही लक्ष्य में रखकर किया गया है तो भी वह खण्डन बौद्धकृत किसी खण्डन के बाद ही का होना चाहिए। यह भी हो सकता है कि असल में ब्रह्मसूत्रगत अनेकान्त का खण्डन जैनदर्शन को लक्ष्य में रखकर न किया गया हो पर भतृ - 15 प्रपञ्च जैसे वेदान्त तथा सांख्य-मीमांसक आदि को लक्ष्य में रखकर किया गया हो। बेशक ब्रह्मसूत्र के उपलब्ध भाष्यों में शाङ्करभाष्य ही प्राचीन है और उसमें जैनदर्शन को ही प्रतिपक्षी समझकर उस अनेकान्तवाद के खण्डन का अर्थ शङ्कराचार्य ने लगाया है। शङ्कराचार्य के बारे में यह कहना दुःसाहस मालूम होता है कि वे मीमांसक कुमारिल प्रतिपादित अनेकान्त को या सांख्य सिद्धान्त की अनेकान्तास्मकता को जानते न थे । यदि यह कल्पना ठीक है तो फिर 20 प्रश्न होता है कि शङ्कराचार्य ने ब्रह्मसूत्रगत अनेकान्त के खण्डन को केवल जैन प्रक्रियाप्रसिद्ध अनेकान्त, सप्तभङ्गो आदि के खण्डन के द्वारा ही कैसे घटाया ? । इसका खुलासा यह जान पड़ता है कि जैसे अनेकान्तस्थापन विषयक स्वतन्त्र ग्रन्थ जैनसाहित्य में बने और थे वैसे मीमांसा और सांख्य दर्शन में न बने और न थे। उनमें प्रसंगात् अनेकान्तपोषक चर्चा पाई जाती थी। अतएव अनेकान्त. सप्तभङ्गी आदि के समर्थक स्वतन्त्र जैन-प्रन्थों के दृष्टिगोचर 25 होने के कारण शङ्कराचार्य ने केवल जैनमत रूप से ही अनेकान्त का खण्डन किया। हेतुबिन्दु के टीकाकार अर्चट ने भी मुख्यतया जैनमत रूप से अनेकान्तवाद का खण्डन किया है उसका भी तात्पर्य वही हो सकता है। १ "अथ विवसनमतं निरस्यते (ब्र० शाङ्करभा० २. २. ३३ )-नैकस्मिन्नसम्भवात्" ब्रह्मसू० २.२.३३ से। २ "न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः"-सांख्यका०३। योगभा० १.२। ३ "सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः। चोदितो दधि खादेति किमुष्ट नाभिधावति ॥"इत्यादि-प्रमाणवा० १. १८३-४ । ४ हेतुबि० टी० पृ० १०५-१०७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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