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पृ० २४. पं० २६.]
भाषाटिप्पणानि। विन्ध्यवासी और ईश्वरकृष्ण दोनों के लक्षणप्रकार का खण्डन किया है, हेमचन्द्र ने भी उन्हों के शब्दों में दोनों ही के लक्षण का खण्डन किया है।
पृ०.२४. पं० २४. 'प्रमाणविषय-तुलना-"तत्र यस्येप्साजिहासाप्रयुक्तस्य प्रवृत्तिः स प्रमाता, स येनार्थ प्रमिणति तत् प्रमाणम्, योऽर्थः प्रमीयते तत् प्रमेयम्, यत् अर्थविज्ञानं सा प्रमितिः, चतसृषु चैवंविधास्वर्थतत्त्वं परिसमाप्यते ।” न्यायभा० १. १. १ ।
___अ० १. आ. १. सू० ३०-३३. पृ० २४. विश्व के स्वरूप विषयक चिन्तन का मूल ऋग्वेद से भी प्राचीन है। इस चिन्तन के फलरूप विविध दर्शन क्रमश: विकसित और स्थापित हुए जो संक्षेप में पाँच प्रकार में समा जाते हैं-केवल नित्यवाद, केवल अनित्यवाद, परिणामी नित्यवाद, नित्यानित्य उभयवाद और नित्यानित्यात्मकवाद। केवल ब्रह्मवादी वेदान्ती केवल नित्यवादी हैं क्योंकि उनके मत से अनित्यत्व प्राभासिक मात्र है। बौद्ध 10 क्षणिकवादी होने से केवलानित्यवादी हैं। सांख्ययोगादि चेतनभिन्न जगत् को परिणामी नित्य मानने के कारण परिणामी नित्यवादी हैं। न्याय-वैशेषिक आदि कुछ पदार्थों को मात्र नित्य और कुछ को मात्र अनित्य मानने के कारण नित्यानित्य उभयवादी हैं। जैनदर्शन सभी पदार्थो । को नित्यानित्यात्मक मानने के कारण नित्यानित्यात्मकवादी है। नित्यानित्यत्व विषयक दार्शनिको के उक्त सिद्धान्त श्रुति और आगमकालीन उनके अपने-अपने ग्रन्थ में स्पष्टरूप से 15 वर्णित पाये जाते हैं और थोड़ा बहुत विरोधी मन्तव्यों का प्रतिवाद भी उनमें देखा जाता है-सूत्रकृ० १. १. १५-१८। इस तरह तर्क युग के पहिले भी विश्व के स्वरूप के सम्बन्ध में नाना दर्शन और उनमें पारस्परिक पक्ष-प्रतिपक्षभाव स्थापित हो गया था।
तर्कयुग अर्थात् करीब दो हज़ार वर्ष के दर्शनसाहित्य में उसी पारस्परिक पक्षप्रतिपक्ष भाव के आधार पर वे दर्शन अपने-अपने मन्तव्य का समर्थन और विरोधी मन्तव्यों का 20 खण्डन विशेष-विशेष युक्ति-तर्क के द्वारा करते हुए देखे जाते हैं। इसी तर्कयुद्ध के फलस्वरूप तर्कप्रधान दर्शनग्रन्थों में यह निरूपण सब दार्शनिकों के वास्ते आवश्यक हो गया कि प्रमाणनिरूपण के बाद प्रमाण के विषय का स्वरूप अपनी-अपनी दृष्टि से बतलाना, अपने मन्तव्य की कोई कसौटी रखना और उस कसौटी को अपने ही पक्ष में लागू करके अपने पत्त की यथार्थता साबित करना एवं विरोधी पक्षों में उस कसौटी का प्रभाव दिखाकर 25 उनकी अवास्तविकता साबित करना।
प्रा. हेमचन्द्र ने इसी तर्कयुग की शैली का अनुसरण करके प्रस्तुत चार सूत्रों में प्रमाण के विषयरूप से समस्त विश्व का जैनदर्शनसम्मत सिद्धान्त, उसकी कसौटी और उस कसौटी
.१ "एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ।"-ऋग० प्रष्ट० २. १०३ ३० २३. म० ४६। नासदीयसूक्त ऋग० १०. १२६ । हिरण्यगर्भसूक्त ऋग० १०.१२१ ।
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