Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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प्रमाणमीमांसायाः
[ पृ० १६. पं०१७
मनोरञ्जक बात तो यह है कि शाब्दिक क्षेत्र से चलकर इन्द्रियपद की निरुक्ति ने दार्शनिक क्षेत्र में जब प्रवेश किया तभी उस पर दार्शनिक सम्प्रदाय की छाप लग गई । बुद्धघोष ? इन्द्रियपद की निरुक्ति में और सब अर्थ पाणिनिकथित बतलाते हैं पर इन्द्र का अर्थ सुगत बतलाकर भी उस निरुक्ति को सङ्गत करने का प्रयत्न करते हैं । जैन आचार्यों ने 5 इन्द्रपद का अर्थ मात्र जीव या आत्मा ही सामान्य रूप से बतलाया है। उन्होंने बुद्धघोष की तरह उस पद का स्वाभिप्रेत तीर्थङ्कर अर्थ नहीं किया है । न्याय-वैशेषिक जैसे ईश्वरकर्तृत्ववादी किसी वैदिक दर्शन के विद्वान ने अपने ग्रन्थ में इस निरुक्ति को स्थान दिया होता तो शायद वह इन्द्रपद का ईश्वर अर्थ करके भी निरुक्ति सङ्गत करता ।
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सांख्यमत के अनुसार इन्द्रियों का उपादान कारण अभिमान है जो प्रकृतिजन्य एक 10 प्रकार का सूक्ष्म द्रव्य ही है- सांख्यका० २५ । यही मत वेदान्त को मान्य है । न्यायवैशेषिक मत के अनुसार ( न्यायसू० १.१.१२ ) इन्द्रियों का कारण पृथ्वी आदि भूतपञ्चक है जो जड़ द्रव्य ही है । यह मत पूर्वमीमांसक को भी अभीष्ट है । बौद्धमत के अनुसार प्रसिद्ध पाँच इन्द्रियाँ रूपजन्य होने से रूप ही हैं जो जड़ द्रव्यविशेष है। जैन दर्शन भी द्रव्यस्थूल इन्द्रियों के कारणरूप से पुद्गल विशेष का ही निर्देश करता है जो जड़ द्रव्यविशेष ही है ।
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कर्णशष्कुली, अक्षिगोलक कृष्णसार, त्रिपुटिका, जिह्वा और चर्मरूप जिन बाह्य आाकारों को साधारण लोग अनुक्रम से कर्ण, नेत्र, घाण, रसन और त्वक् इन्द्रिय कहते हैं वे बाह्याकार सर्व दर्शनों में इन्द्रियाधिष्ठान २ ही माने गये हैं- इन्द्रियाँ नहीं । इन्द्रियाँ तो उन आकारों में स्थित अतीन्द्रिय वस्तुरूप से मानी गई हैं; चाहे वे भौतिक हों या हङ्कारिक । जैन दर्शन उन पौद्गलिक अधिष्ठानों को द्रव्येन्द्रिय कहकर भी वही भाव 20 सूचित करता है कि - अधिष्ठान वस्तुतः इन्द्रियाँ नहीं हैं । जैन दर्शन के अनुसार भी इन्द्रियाँ अतीन्द्रिय हैं पर भौतिक या अभिमानिक जड़ द्रव्य न होकर चेतनशक्तिविशेषरूप हैं जिन्हें जैन दर्शन भावेन्द्रिय-मुख्य इन्द्रिय- कहता है । मन नामक षष्ठ इन्द्रिय सब दर्शनों अन्तरिन्द्रिया अन्तःकरण रूप से मानी गई है । इस तरह छ: बुद्धि इन्द्रियाँ तो सर्वदर्शन साधारण हैं पर सिर्फ सांख्यदर्शन ऐसा है जो वाकू, पाणि, पादादि पाँच कर्मेन्द्रियों 25 को भी इन्द्रियरूप से गिनकर उनकी ग्यारह संख्या ( सांख्यका० २४ ) बतलाता है जैसे वाचस्पति मिश्र और जयन्त ने सांख्यपरिगणित कर्मेन्द्रियों को इन्द्रिय मानने के विरुद्ध कहा है वैसे ही प्रा० हेमचन्द्र ने भी कर्मेन्द्रियों के इन्द्रियत्व का निरास करके अपने पूर्ववर्ती पादादि जैनाचार्यों का ही अनुसरण किया है ।
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पूज्य -
१ देखा टिप्पण पृ० ३६. टिप्पणी १ ।
२ न्यायम० पृ० ४७७ ।
३ तात्पर्य० पृ० ५३१ । न्यायम० पृ० ४८३ । ४ तत्वार्थभा० २. १५ । सर्वार्थ० २. १५ ।
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