Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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प्रमाणमीमांसायोः [पृ० १०.१० १४अर्थात् अन्त में कुछ न कुछ अज्ञेय रह ही जाता है। क्योंकि ज्ञान की शक्ति ही स्वभाव से परिमित है। वेदवादी पूर्वमीमांसक आत्मा, पुनर्जन्म, परलोक आदि अतीन्द्रिय पदार्थ मानता है। किसी प्रकार का अतीन्द्रिय ज्ञान होने में भी उसे कोई आपत्ति नहीं फिर भी
वह अपौरुषेयवेदवादी होने के कारण वेद के अपौरुषेयत्व में बाधक ऐसे किसी भी प्रकार 5 के अतीन्द्रिय ज्ञान को मान नहीं सकता। इसी एकमात्र अभिप्राय से उसने वेद-निरपेक्ष साक्षात् धर्मज्ञ या सर्वज्ञ के अस्तित्व का विरोध किया है। वेद द्वारा धर्माधर्म या सर्व पदार्थ जाननेवाले का निषेध नहीं किया।
बौद्ध और जैन दर्शनसम्मत साक्षात् धर्मज्ञवाद या साक्षात् सर्वज्ञवाद से वेद के अपौरुषेयत्व का केवल निरास ही अभिप्रेत नहीं है बल्कि उसके द्वारा वेदों में अप्रामाण्य 10 बतलाकर वेदभिन्न भागों का प्रामाण्य स्थापित करना भी अभिप्रेत है। इसके विरुद्ध
जो न्याय-वैशेषिक आदि वैदिक दर्शन सर्वज्ञवादी हैं उनका तात्पर्य सर्वज्ञवाद के द्वारा वेद के अपौरुषेयत्ववाद का निरास करना अवश्य है, पर साथ ही उसी वाद के द्वारा वेद का पौरुषेयत्व बतलाकर उसीका प्रामाण्यस्थापन करना भी है।
न्याय-वैशेषिक दर्शन ईश्वरवादी हैं। वे ईश्वर के ज्ञान को नित्य२- उत्पाद-विनाश15 रहित और पूर्ण-त्रैकालिक सूक्ष्म-स्थूल समग्र भावों को युगपत् जाननेवाला-मानकर तद्वारा
उसे सर्वज्ञ मानते हैं। ईश्वरभिन्न आत्माओं में वे सर्वज्ञत्व मानते हैं सही, पर सभी आत्माओं में नहीं किन्तु योगी आत्माओं में। योगियों में भी सभी योगियों को वे सर्वज्ञ नहीं मानते किन्तु जिन्होंने योग द्वारा वैसा सामर्थ्य प्राप्त किया हो सिर्फ उन्हीं को ३ । न्याय-वैशेषिक
मतानुसार यह नियम नहीं कि सभी योगियों को वैसा सामर्थ्य अवश्य प्राप्त हो। इस मत में 20 जैसे मोक्ष के वास्ते सर्वज्ञत्वप्राप्ति अनिवार्य शर्त नहीं है वैसे यह भी सिद्धान्त है कि मोक्ष
१ "चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्मं व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवंजातीयकमर्थं शक्नोत्यवगमयितुम्, नान्यत् किञ्चनेन्द्रियम्"-शाबरभा० १.१.२। “नानेन वचनेनेह सर्वज्ञत्वनिराक्रिया । वचनादृत इत्येवमपवादा हि संश्रितः॥ यदि षड्भिः प्रमाणैः स्यात् सर्वज्ञः केन वार्यते । एकेन तु प्रमाणेन सर्वशो येन कल्प्यते ॥ नूनं स चक्षुषा सर्वान् रसादीन् प्रतिपद्यते ।" श्लोकवा० चोद० श्लो० ११०-२। "धर्मज्ञत्वनिषेधश्च केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद्विलानंस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥"-तत्त्वसं० का० ३१२८ । यह श्लोक तत्त्वसंग्रह में कुमारिल का कहा गया है पृ०८४४ ।
२"नच बुद्धीच्छाप्रयत्नानां नित्यत्वे कश्चिद्विरोधः। दृष्टा हि गुणानामाश्रयभेदेन द्वयी गतिः नित्यता अनित्यता च तथा बुद्धयादीनामपि भविष्यतीति ।"--कन्दली पृ०६०। "एतादृशानुमिती लाघवज्ञानसहकारेण ज्ञानेच्छाकृतिषु नित्यत्वमेकत्वं च भासते इति नित्यैकत्वसिद्धिः।"-दिनकरी पृ०२६ ।
३ वै० सू० ६. १.११-१३ । “अस्मद्विशिष्टानां तु योगिनां युक्तानां योगजधर्मानुगृहीतेन मनसा स्वात्मान्तराकाशदिक्कालपरमाणुवायुमनस्सु तत्समवेतगुणकर्मसामान्यविशेषेषु समवाये चावितयं स्वरूपदर्शनमुत्पद्यते। वियुक्तानां पुनश्चतुष्टयसन्निकर्षाद्योगजधर्मानुग्रहसामर्थ्यात् सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टेषु प्रत्यक्षमुत्पद्यते।"-प्रश० पृ० १८७। वै० सू०६.१.११-१३ ।।
४"तदेवं धिषणादीनां नवानामपि मूलतः। गुणानामात्मनो ध्वंस: सोऽपवर्गः प्रकीर्तितः ॥" न्यायम० पृ० ५०८.।
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