Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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भाषाटिप्पणानि ।
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पृ० १०. पं० १६. ]
अन्य तीर्थङ्करों में सर्वज्ञत्व का असम्भव बतलाकर केवल सुगत में ही उसका अस्तित्व सिद्ध किया है और उसी के शास्त्र को ग्राह्य बतलाया 1
शान्तरक्षित की तरह प्रत्येक सांख्य या जैन आचार्य का भी यही प्रयत्न रहा है कि सर्वज्ञत्व का सम्भव अवश्य है पर वे सभी अपने-अपने तीर्थङ्करों में ही सर्वज्ञत्व स्थापित करते हुए अन्य तीर्थङ्करों में उसका नितान्त असम्भव बतलाते हैं ।
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जैन आचार्यों की भी यही दलील रही है कि अनेकान्त सिद्धान्त ही सत्य है । उसके यथावत् दर्शन और आचरण के द्वारा ही सर्वज्ञत्व लभ्य है । अनेकान्त का साक्षात्कार व उपदेश पूर्णरूप से ऋषभ, वर्द्धमान आदि ने ही किया अतएव वे ही सर्वज्ञ और उनके उपदिष्ट शास्त्र ही निर्दोष व ग्राह्य हैं। सिद्धसेन हों या समन्तभद्र, अकलङ्क हों या हेमचन्द्र सभी जैनाचार्यों ने सर्वज्ञसिद्धि के प्रसङ्ग में वैसा हो युक्तिवाद अवलम्बित किया है जैसा बौद्ध 10 सांख्यादि श्राचार्यों ने । अन्तर सिर्फ इतना ही है कि किसी ने नैरात्म्यदर्शन को तो किसी ने पुरुष - प्रकृति आदि तत्वों के साक्षात्कार को, किसी ३ ने द्रव्य-गुणादि छः पदार्थ के तत्वज्ञान को तो किसी ने केवल आत्मज्ञान को यथार्थ कहकर उसके द्वारा अपने-अपने मुख्य 'प्रवर्त्तक तीर्थङ्कर में ही सर्वज्ञस्व सिद्ध किया है, जब जैनाचार्यों ने अनेकान्तवाद की यथार्थता दिखाकर इसके द्वारा भगवान् ऋषभ, वर्द्धमान आदि में ही सर्वज्ञत्व 15 स्थापित किया है। जो कुछ हो, इतना साम्प्रदायिक भेद रहने पर भी सभी सर्वज्ञवादी दर्शनों का, सम्यग्ज्ञान से मिथ्याज्ञान और तज्जन्य क्लेशों का नाश और तद्द्वारा ज्ञानावरण के सर्वथा नाश की शक्यता आदि तात्विक विचार में कोई मतभेद नहीं ।
पृ० १०.पं० १५. ‘दीर्घकाल’–तुलना - " स तु दीर्घकालनैरन्तर्य सरकारासेवितो दृढभूमिः ।”— योगसू० १. १४ ।
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पृ० १०. पं० १६. 'एकत्व वितर्क' - तुलना - 'पृथक्त्वैकत्ववितर्क सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिन्युपरतक्रिया निवृत्तीनि ।" " अविचारं द्वितीयम् । " - तत्त्वार्थ० ६. ४१, ४४ । " वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात् संप्रज्ञातः । " " तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्ति: । " "निर्विचार वैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः । " - योगसू० १. १७, ४२, ४७, ४८ । " से खा अहं ब्राह्मण
१ "अद्वितीयं शिवद्वारं कुदृष्टीनां भयंकरम् । विनेयेभ्यो हितायोक्तं नैरात्म्यं तेन तु स्फुटम् ॥" - तत्त्वसं० का० ३३२२।
२ "एवं तत्त्वाभ्यासान्नास्मि न मे नाहमित्यपरिशेषम् । विपर्ययाद्विशुद्धं केवलमुत्पद्यते ज्ञानम् ॥”सांख्यका० ६४ |
३ " धर्मविशेषप्रसूतात् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधम्र्म्याभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम् " - वै० सू० १.१.४ ।
४ "आत्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेन इदं सर्व विदितम् । " - बृहदा० २. ४. ५। ५ “त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । श्राप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥" - श्रप्तमी० का० ७ । श्रयोग० का० २८ ।
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