Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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पृ० १०. पं० १४.]
भाषाटिप्पणानि। की अपेक्षा रक्खे बिना ही, स्वतन्त्र विधान करना यही वेद का कार्य है। इसी सिद्धान्त को स्थिर रखने के वास्ते कुमारिल ने कहा है कि कोई भले ही धर्माधर्मभिन्न अन्य सब वस्तु साक्षात् जान सके पर धर्माधर्म को वेदनिरपेक्ष होकर कोई साक्षात् नहीं जान सकता?, चाहे वह जाननेवाला बुद्ध, जिन आदि जैसा मनुष्य योगी हो, चाहे वह ब्रह्मा, विष्णु आदि जैसा देव हो, चाहे वह कपिल, प्रजापति आदि जैसा ऋषि या अवतारी हो। कुमारिल का 5 कहना है कि सर्वत्र सर्वदा धर्ममर्यादा एक सी है, जो सदा सर्वत्र एकरूप वेद द्वारा विहित मानने पर ही सङ्गत हो सकती है। बुद्ध आदि व्यक्तियों को धर्म के साक्षात् प्रतिपादक मानने पर वैसी मर्यादा सिद्ध हो नहीं सकती क्योंकि बुद्ध आदि उपदेशक कभी निर्वाण पाने पर नहीं भी रहते । जीवितदशा में भी वे सब क्षेत्रों में पहुँच नहीं सकते। सब धर्मोपदेशको की एकवाक्यता भी सम्भव नहीं। इस तरह कुमारिल साक्षात् धर्मज्ञत्व का निषेधर करके 10 फिर सर्वज्ञत्व का भी सब में निषेध करते हैं। वह पुराणोक्त ब्रह्मादि देवों के सर्वज्ञत्व का अर्थ भी, जैसा उपनिषदों में देखा जाता है, केवल आत्मज्ञान परक करते हैं। बुद्ध, महा-. वीर आदि के बारे में कुमारिल का यह भी कथन४ है कि वे वेदज्ञ ब्राह्मण जाति को धर्मो. पदेश न करने और वेदविहीन मूर्ख शूद्र आदि को धर्मोपदेश करने के कारण वेदाभ्यासी एवं वेद द्वारा धर्मज्ञ भी नहीं थे। बुद्ध, महावीर आदि में सर्वज्ञत्वनिषेध की एक प्रबल युक्ति 15 कुमारिल ने यह दी है कि परस्परविरुद्धभाषी बुद्ध, महावीर, कपिल आदि में से किसे सर्वज्ञ माना जाय और किसे न माना जाय ? । अतएव उनमें से कोई सर्वज्ञ नहीं है। यदि वे सर्वज्ञ होते तो सभी वेदवत् अविरुद्धभाषी होते, इत्यादि। .
१ "नहि अतीन्द्रियार्थे वचनमन्तरेण अवगतिः सम्भवति, तदिदमुक्तम्-अशक्यं हि तत् पुरुषेण ज्ञातुमृते वचनात्" --शाबरभा० १. १. २। श्लो० न्याय० पृ० ७६ ।
२ "कुड्यादिनिःसृतत्वाच नाश्वासो देशनासु नः। किन्नु बुद्धप्रणीताः स्युः किमु कश्चिद् दुरात्मभिः । अदृश्यैः विप्रलम्भार्थ पिशाचादिभिरीरिताः। एवं यैः केवलं ज्ञानमिन्द्रियाद्यनपक्षिणः। सूक्ष्मातीतादिविषयं जोवस्य परिकल्पितम् ॥” -श्लाकवा० सू० २. श्लो० १३६-४१। “यत्तु वेदवादिभिरेव कैश्चिदुक्तम्नित्य एवाऽयं वेदः प्रजापतेः प्रथममार्षज्ञानेनावबुद्धो भवतीति तदपि सर्वज्ञवदेव निराकार्यमित्याह-नित्येति"श्लो० न्याय० सू० २. १४३। "प्रथापि वेददेहत्वात् ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः। सर्वज्ञानमयाद्वेदात्सार्वज्यं मानुषस्य किम् ॥"-तत्त्वसं० का० ३२०८, ३२१३-१४ ।
३ "ज्ञानं वैराग्यमैश्वर्यमिति योपि दशाव्ययः । शङ्करः श्रूयते सेाऽपि ज्ञानवानात्मवित्तया ॥"तत्त्वसं० का० ३२०६।
४ "शाक्यादिवचनानि तु कतिपयदमदानादिवचनवर्ज सर्वाण्येव समस्तचतुर्दशविद्यास्थानविरुद्धानि त्रयोमार्गब्युस्थितविरुद्धाचरणैश्च बुद्धादिभिः प्रणीतानि । त्रयीबाह्य भ्यश्चतुर्थवर्णनिरवसितप्रायेभ्यो व्यामू. ढेभ्यः समर्पितानीति न वेदमूलत्वेन संभाव्यन्ते ।"-तन्त्रवा० पृ० ११६ । तत्त्व-सं० का० ३२२६-२७ ।
५ "सर्वज्ञषु च भूयःसु विरुद्धार्थोपदेशिषु। तुल्यहेतुषु सर्वेषु को नामैकोऽवधार्यताम् ॥ सुगतो यदि सर्वज्ञ: कपिलो नेति का प्रमा। अथोभावपि सर्वज्ञौ मतभेदः तयोः कथम् ॥"-तत्त्वसं० का० ३१४८-४६॥
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