Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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पृ० १०.५० १४.)
भाषाटिप्पणानि। है क्योंकि अकलङ्क के पूर्ववर्ती धर्मकीर्ति आदि बौद्ध तार्किको ने इसका प्रयोग प्रत्यक्षस्वरूपनिरूपण में किया है। अकलङ्क के बाद तो जैन परम्परा में भी इसका प्रयोग रूढ़ हो गया। वैशद्य किंवा स्पष्टत्व का निर्वचन तीन प्रकार से पाया जाता है। अकलङ्क के-"अनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम्" ( लघी० १. ४ )-निर्वचन का देवसूरि और यशोविजयजी ने अनुगमन किया है। जैनतर्कवार्त्तिक में (पृ० ६५) 'इदन्तया' अथवा 'विशेषवत्तया' प्रतिभास- 5 वाले एक ही निर्वचन का सूचन है। माणिक्यनन्दी ने ( परीक्षा मु० २.४) 'प्रतीत्यन्तरा. व्यवधान' और 'विशेषप्रतिभास' दोनों प्रकार से वैशद्य का निर्वचन किया है जिसे आ. हेमचन्द्र ने अपनाया है।
पृ०६. पं० २६. 'प्रत्यक्षं धर्मि-तुलना-"विशदज्ञानात्मकं प्रत्यक्ष प्रत्यक्षत्वात... धर्मिणो हेतुत्वेऽनन्वयप्रसङ्ग इति चेत्, न, विशेषं धर्मिणं कृत्वा सामान्यं हेतु ब्रुवता दोषाऽ- 10 संभवात"-प्रमाणप० पृ० ६७. प्रमेयर० २.३.
अ० १. प्रा० १. सू० १५-१७. पृ० १०. लोक और शास्त्र में सर्वज्ञ शब्द का उपयोग, योगसिद्ध विशिष्ट अतीन्द्रिय ज्ञान के सम्भव में विद्वानों और साधारण लोगों की श्रद्धा, जुदे जुदे दार्शनिकों के द्वारा अपने अपने मन्तव्यानुसार भिन्न भिन्न प्रकार के विशिष्ट ज्ञानरूप अर्थ में सर्वज्ञ जैसे पदों को लागू करने का प्रयत्न और सर्वज्ञरूप से माने जाने. 15 वाले किसी व्यक्ति के द्वारा ही मुख्यतया उपदेश किये गये धर्म या सिद्धान्त की अनुगामियों में वास्तविक प्रतिष्ठा-इतनी बातें भगवान महावीर और बुद्ध के पहिले भी थीं-इसके प्रमाण मौजूद हैं। भगवान महावीर और बुद्ध के समय से लेकर आज तक के करीब ढाई हज़ार वर्ष के भारतीय साहित्य में तो सर्वज्ञत्व के अस्ति-नास्तिपक्षों की, उसके विविध स्वरूप तथा समर्थक और विरोधी युक्तिवादों की, क्रमश: विकसित सूक्ष्म और सूक्ष्मतर स्पष्ट एवं मनो- 20 रुजक चर्चाएँ पाई जाती हैं।
सर्वज्ञत्व के नास्तिपक्षकार मुख्यतया तीन हैं-चार्वाक, अज्ञानवादी और पूर्वमीमासक। उसके अस्तिपक्षकार तो अनेक दर्शन हैं, जिनमें न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, वेदान्त, बौद्ध और जैन दर्शन मुख्य हैं।
चार्वाक इन्द्रियगम्य भौतिक लोकमात्र को मानता है इसलिए उसके मत में अतीन्द्रिय 25 प्रात्मा तथा उसकी शक्तिरूप सर्वज्ञत्व आदि के लिए कोई स्थान ही नहीं है। अज्ञानवादी का अभिप्राय माधुनिक वैज्ञानिकों की तरह ऐसा जान पड़ता है कि ज्ञान और अतीन्द्रिय ज्ञान की भी एक अन्तिम सीमा होती है। ज्ञान कितना ही उच्च कक्षा का क्यों न हो पर वह त्रैकालिक सभी स्थूल-सूक्ष्म भावों को पूर्ण रूप से जानने में स्वभाव से ही असमर्थ है।
१ "न विकल्पानुबद्धस्य स्पष्टार्थप्रतिभासिता।"-प्रमाणवा० ३. २८३ । “प्रत्यक्षं कल्पनापोडं वेद्यतेऽतिपरिस्फुटम् ।"-तत्त्वसं० का० १२३४
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