Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 183
________________ पृ० ८. पं० २०. .] भाषाटिप्पणानि । २५ • श्वेताम्बर आचार्यो ? ने प्रत्यक्ष-परोक्ष दोनों का समबलत्व बौद्ध परम्परा की तरह स्वीकार किया है । पृ० ७. पं० २६. 'व्यवस्था' - इस सूत्र में चार्वाक के प्रति प्रमाणान्तर की सिद्धि करते हुए तीन युक्तियों का प्रयोग आ० हेमचन्द्र ने किया है जो धर्मकीर्त्ति के नाम से उद्धृत कारिका में स्पष्ट है । वह कारिका धर्मकीर्त्ति के उत्तरवर्त्ती सभी बौद्ध, वैदिक और जैन 5 ग्रन्थों में पाई जाती है २ । 1 वृति में तीनों युक्तियों का जो विवेचन है वह सिद्धर्षि की न्यायावतारवृत्ति के साथ शब्दशः मिलता है । पर तात्पर्यटीका और सांख्यतत्वकौमुदी के विवेचन के साथ उसका शब्दसादृश्य होने पर भी अर्थसादृश्य ही मुख्य है । " स हि काश्चित् प्रत्यक्षव्यक्तीरर्थक्रियासमर्थार्थप्रापकत्वेनाव्यभिचारिणीरुपलभ्याम्या- 10 स्तद्विपरीततया व्यभिचारिणीश्च ततः कालान्तरे पुनरपि तादृशेतराणां प्रत्यक्षव्यक्तीनां प्रमाणतेतरते समाचक्षीत ।" न्याया० सि० टी० पृ० १८ । “दृष्टप्रामाण्याप्रामाण्यविज्ञानव्यक्तिसाधर्म्येण हि कासांचिद्व्यक्तीनां प्रामाण्यमप्रामाण्यं वा विदधीत । दृष्टसाधर्म्य चानुमानमेवेति कथं तेनैव तस्याप्रामाण्यम् । अपि चानुमानमप्रमाणमिति वाक्यप्रयोगोऽज्ञं विप्रतिपन्नं सन्दिग्धं वा पुरुषं प्रत्यर्थवान्, न च पर- 15 पुरुषवर्तिना देहधर्मा अपि संदेहाज्ञानविपर्यासा गौरत्वादिवत् प्रत्यक्षा वोच्यन्ते, न च तद्वचनात् प्रतीयन्ते, वचनस्यापि प्रत्यक्षादन्यस्याप्रामाण्योपगमात् । पुरुषविशेषमनधिकृत्य तु वचनमनकं प्रयुब्जानेा नायं लौकिको न परीक्षक इत्युन्मत्तवदनवधेयवचनः स्यात् । " - तात्पर्य ० १.१.५ । "नानुमानं प्रमाणमिति वदता लौकायतिकेनाऽप्रतिपन्नः सन्दिग्धो विपर्यस्ता वा पुरुष: कथं प्रतिपद्येत ? | न च पुरुषान्तरगता अज्ञानसन्देहविपर्यया: शक्या अवग्टशा प्रत्यक्षेण 20 प्रतिपत्तुम् । नापि मानान्तरेय, अनभ्युपगमात् । अनवधृताज्ञानसंशयविपर्यासस्तु यं कश्चित्पुरुषं प्रति प्रवर्तमानाऽनवधेयवचनतया प्रेक्षावद्भिरुन्मत्तवदुपेदयेत । तदनेनाज्ञानादयः परपुरुषवर्तिनेाऽभिप्रायभेदाद्वचनभेदाद्वा लिङ्गादनुमातव्याः, इत्यकामेनाप्यनुमानं प्रमाणमभ्युपेयम् ।" - सांख्यत० का०५ | ०८. पं० २०. 'अर्थस्याऽसंभवे' - तुलना - तत्त्वसं० पं० पृ० ७७५ । विधिवि० न्यायक० पृ० १६३ | 2 सिद्धिवि० टी० लि० पृ० १५५ A. अष्टस६० पृ० ११५ । सन्मतिटी ० पृ०१७, ७३, ५५५ । न्यायवि० टी० लि० पृ० ६ A. १ न्याया० सि० टी० पृ० १६ । स्याद्वादर० पृ० २६० । २ कन्दली पृ० २५५ । प्रमाणप० पृ० ६४ । २६१ । न्यायसारता० पृ० ८८ । Jain Education International प्रमेयक० पृ० ४६ ॥ स्याद्वादर० पृ० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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