Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 173
________________ ०५. पं० १७.] भाषाटिप्पणानि । १५ लक्षण कारणमूलक हैं। देवसूरि का लक्षण कारण और स्वरूप उभयमूलक २ है जब कि आ० हेमचन्द्र के इस लक्षण में केवल स्वरूप का निदर्शन है, कारण का नहीं । पृ० ५ पं० ८ 'साधकबाधक' - तुलना - " साधकबाधकप्रमाणाभावात् तत्र संशीतिः - लघीं॰ स्ववि० १. ४. अष्टश० का० ३. “ सेयं साधक बाधकप्रमाणानुपपत्तौ सत्यां समानधर्मोपलब्धिर्विनश्यदवस्थाविशेषस्मृत्या सहाविनश्यदवस्थयैकस्मिन् क्षणे सती संशयज्ञानस्य हेतुरिति 5 सिद्धम् ।" - तात्पर्य० १. १ २३. " न हि साधकबाधकप्रमाणाभावमवधूय समानधर्मादिदर्शनादेवासी" - न्यायकु ० पृ० ८. पृ० ४. पं० १३. 'विशेषा' - प्रत्यक्ष अनुमान उभय विषय में अनध्यवसाय का स्वरूप बतलाते हुए प्रशस्तपाद ने लिखा है कि "नध्यवसायेोपि प्रत्यक्षानुमानविषय एव सञ्जायते । तत्र प्रत्यक्षविषये तावत् 10 प्रसिद्धार्थेष्वप्रसिद्धार्थेषु वा व्यासङ्गादनर्थित्वाद्वा किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः । यथा वाहीकस्य पनसादिष्वनभ्यवसायो भवति । तत्र सत्ताद्रव्यत्वपृथिवीत्ववृक्षत्वरूपवत्त्वादिशाखाद्यपेक्षेोऽध्यवसायेो भवति । पनसत्वमपि पनसेष्वनुवृत्तमाम्रादिभ्यो व्यावृत्तं प्रत्यक्षमेव केवलं तूपदेशाभावाद्विशेषज्ञाप्रतिपत्तिर्न भवति । अनुमानविषयेऽपि नारिकेलद्वीपवासिनः सानामात्रदर्शनात् को नु खल्वयं प्राणी स्यादित्यनध्यवसायो भवति । " - प्रशस्त० पृ० १८२. उसी के विवरण में श्रीधर ने कहा है कि - " सेयं संज्ञाविशेषानवधारणात्मिका प्रतीतिरनध्यवसायः ॥” - कन्दली० पृ० १८३. ० हेमचन्द्र के लक्षण में वही भाव सन्निविष्ट है । पृ० ५. पं० १५ - ' परेषाम् ' - तुलना - " प्रत्यक्षं कल्पनापोढं नामजात्याद्यसंयुतम्” प्रमाणसमु०१.३. “तत्र प्रत्यक्षं कल्पनापोढं यज्ज्ञानमर्थे रूपादैा नामजात्यादिकल्पनारहितं तदक्षमक्षं 20 प्रति वर्त्तते इति प्रत्यक्षम् ” न्यायप्र० पृ० ७. " कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्ष मृ” — न्यायवि० १. ४. पृ० ५. पं० १७. 'अतस्मिन् ' - आ० हेमचन्द्र का प्रस्तुत लक्षण कणादरे के लक्षण की तरह कारणमूलक नहीं है पर योगसूत्र और प्रमाणनयतत्वालोक के लक्षण की तरह स्वरूपमूलक है । १. " सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षाद्विशेषस्मृतेश्च संशयः " " दृष्टं च दृष्टवत्" "यथादृष्टमयथादृष्टत्वाच्च” "विद्याऽविद्यातश्च संशयः " - वैशे० सू० २. २. १७-२०. “समानाऽनेकधर्मोपपत्तेर्विप्रतिपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातश्च विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः " - न्यायसू० १ १. २३. "अन्ये तु संशयलक्षणमन्यथा व्याचक्षते - साधर्म्य दर्शनाद्विशेषोपलिप्सोर्विमर्शः संशय इति" - न्यायवा० - १.१.२३. "बौद्धाभिमतं संशयलक्षणमुपन्यस्यति । अन्ये स्विति ।" तात्पर्य० १.१.२३. २. " साधकबाधकप्रमाणाभावादनवस्थितानेक कोटिसंस्पर्श' ज्ञानं संशयः । " - प्रमाणन० १. १२. ३. “इन्द्रियदोषात् संस्कारदेोषाच्चाविद्या" वैशे० सू० १.२.१०. ४. “विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् । ” - योगसू० १.८ प्रमाणन० १. १०, ११. Jain Education International For Private & Personal Use Only 15 25 www.jainelibrary.org

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