Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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पृ० ७. पं० ७.]
भाषाटिप्पणानि । 'न्याय-वैशेषिक आदि तर्कप्रधान वैदिक दर्शनों के प्रभाव के कारण बौद्ध भिक्षु तो पहिले ही से अपनी पिटकोचित मूल मर्यादा के बाहर वादभूमि और तदुचित तर्क-प्रमाणवाद की ओर झुक ही गये थे। क्रमश: जैन भिक्षु भी वैदिक और बौद्धदर्शन के तर्कवाद के असर से बरी न रह सके अतएव जैन प्राचार्यों ने जैन परम्परा में ज्ञानविभाग की भूमिका के ऊपर प्रमाणविभाग की स्थापना की और प्रतिवादी विद्वानों के साथ उसी प्रमाणविभाग को लेकर गोष्ठी या चर्चा करने लगे। आर्यरक्षित ने प्रत्यक्ष-अनुमान आदिरूप से चतुर्विध प्रमाणविभाग दर्शाते समय प्रत्यक्ष के वर्णन में ( पृ० २११ ) इन्द्रियप्रत्यक्षरूप मतिज्ञान का और आगमप्रमाण के वर्णन में श्रुतज्ञान का स्पष्ट समावेश सूचित कर ही दिया था फिर भी आगमिक-तार्किक जैन आचार्यों के सामने बराबर एक प्रश्न आया ही करता था कि अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति आदि दर्शनान्तरप्रसिद्ध प्रमाणों को जैनज्ञानप्रक्रिया मानती है 10 या नहीं ?। अगर मानती है तो उनका स्वतन्त्र निरूपण या समावेश उसमें स्पष्ट क्यों नहीं पाया जाता ?। इसका जवाब जहाँ तक मालूम है सबसे पहिले उमास्वाति ने दिया है (तत्त्वार्थभा० १.१२ ) कि वे अनुमानादि दर्शनान्तरीय सभी प्रमाण मति, श्रुत जिन्हें हम परोक्ष प्रमाण कहते हैं उसी में अन्तर्भूत हैं। उमास्वाति के इसी जवाब का अक्षरशः अनुसरण पूज्यपाद ने ( सर्वार्थसि० १.१२ ) किया है। पर उसमें कोई नया विचार या विशेष स्पष्टता 15 नहीं की।
चतुर्विध प्रमाणविभाग की अपेक्षा द्विविध प्रमाण विभाग जैन प्रक्रिया में विशेष प्रतिष्ठा पा चुका था और यह हुआ भी योग्य । अतएव नन्दोसूत्र में उसी द्विविध प्रमाणविभाग को लेकर ज्ञानचर्चा विशेष विस्तार से हुई। नन्दोकार ने अपनी ज्ञानचर्चा की भूमिका तो रची द्विविध प्रमाणविभाग पर, फिर भी उन्होंने आर्यरक्षित के चतुर्विध प्रमाण- 20 विभागाश्रित वर्णन में से मुख्यतया दो तत्त्व लेकर अपनी चर्चा की। इनमें से पहिला तत्त्व तो यह है कि लोक जिस इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष समझते व कहते हैं और जिसे जैनेतर सभी तार्किकों ने प्रत्यक्ष प्रमाण हो माना है, उसको जैन प्रक्रिया में भी प्रत्यक्ष प्रमाण कहकर प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद कर दिये ( नन्दीसू० ३) जिससे एक में उमास्वातिकथित अवधि आदि मुख्य प्रमाण रहे और दूसरे में इन्द्रियजन्य ज्ञान भी प्रत्यक्ष रूप से रहे। 25 दूसरा तत्त्व यह है कि जिसे दर्शनान्तर आगम प्रमाण कहते हैं वह वस्तुतः श्रुतज्ञान ही है और परोक्ष प्रमाण में समाविष्ट है।
यद्यपि आगमिक ज्ञानचर्चा चलती रही फिर भी जैन विचारप्रक्रिया में तार्किकता बल पकड़ने लगी। इसी का फल न्यायावतार है। उसमें द्विविध प्रमाणविभाग लेकर तार्किक शैली से ज्ञान का निरूपण है। उसका मुख्य उद्देश्य जैन प्रक्रियानुसारी अनुमान-न्याय 30 को बतलाना-यह है। हम देखते हैं कि न्यायावतार में परोक्षप्रमाण के भेदों के वर्णन ने ही मुख्य जगह रोकी है फिर भी उसमें यह नहीं कहा है कि जैन प्रक्रिया परोक्षप्रमाण के अमुक और इतने ही भेद मानती है जैसा कि आगे जा कर अन्य आचार्यों ने कहा है।
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