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पृ० ६. पं० १.]
भाषाटिप्पणानि ।
गया तब बाकी के प्रत्यक्ष आदि सब प्रमाणों का प्रामाण्य भी 'परतः' ही सिद्ध किया गया और समान युक्ति से उसमें अप्रामाण्य को भी 'परतः' ही निश्चित किया। इस तरह प्रामाण्य-अप्रामाण्य दोनों परतः ही न्याय-वैशेषिक सम्मत हुए ।
मीमांसक ईश्वरवादी न होने से वह तन्मूलक प्रामाण्य तो वेद में कह ही नहीं सकता था। अतएव उसने वेदप्रामाण्य स्वतः' मान लिया और उसके समर्थन के वास्ते प्रत्यक्ष आदि सभी ज्ञानों का प्रामाण्य 'स्वत:' ही स्थापित किया । पर उसने अप्रामाण्य को तो 'परतः ही माना है। । यद्यपि इस चर्चा में सांख्यदर्शन का क्या मन्तव्य है इसका कोई उल्लेख उसके उपलब्ध ग्रन्थों में नहीं मिलता फिर भी कुमारिल, शान्तरक्षित और माधवाचार्य के कथनों से जान पड़ता है कि सांख्यदर्शन प्रामाण्य-अप्रामाण्य दोनों को 'स्वतः' ही माननेवाला रहा है। शायद उसका तद्विषयक प्राचीन साहित्य नष्टप्राय हुआ हो। उक्त आचार्यों के ग्रन्थों में 10 ही एक ऐसे पक्ष का भी निर्देश है जो ठोक मीमांसक से उलटा है अर्थात् वह अप्रामाण्य को 'स्वत:' ही और प्रामाण्य को 'परतः' ही मानता है। सर्वदर्शन संग्रह में-सौगताश्चरमं स्वतः ( सर्वद० पृ. २७६ ) इस पक्ष को बौद्ध पक्ष रूप से वर्णित किया है सही, पर तत्त्वसंग्रह में जो बौद्ध पक्ष है वह बिलकुल जुदा है। संभव है सर्वदर्शनसंग्रहनिर्दिष्ट बौद्धपक्ष किसी अन्य बौद्धविशेष का रहा हो।
15 शान्तरक्षित ने अपने बौद्ध मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए कहा है कि-१-प्रामाण्य-अप्रामाण्य उभय 'स्वत:', २-उभय 'परतः', ३-दोनों में से प्रामाण्य स्वत: और अप्रामाण्य परतः, तथा ४-अप्रामाण्य स्वतः, प्रामाण्य परत:-इन चार पत्तों में से कोई भी बौद्ध पक्ष नहीं है क्योंकि वे चारों पक्ष नियमवाले हैं। बौद्धपक्ष अनियमवादी है अर्थात् प्रामाण्य हो या अप्रामाण्य दोनों में कोई 'स्वत: तो कोई 'परत:' अनियम से है। अभ्यासदशा में तो 'स्वत:' समझना 20 चाहिए चाहे प्रामाण्य हो या अप्रामाण्य । पर अनभ्यासदशा में 'परत:' समझना चाहिए।
१ "प्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्तौ प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत् प्रमाणम्”-न्यायभा० पृ०१। तात्पर्य०१.१.१। कि विज्ञानानां प्रामाण्यमप्रामाण्यं चेति द्वयमपि स्वतः उत उभयमपि परतः पाहोस्विदप्रामाण्यं स्वतः प्रामाण्य तु परत: उतस्वित् प्रामाण्यं स्वत: अप्रामाण्यं तु परत इति । तत्र परत एव वेदस्य प्रामाण्यमिति वक्ष्यामः ।...स्थितमेतदर्थक्रियाज्ञानात् प्रामाण्यनिश्चय इति। तदिदमुक्तम् । प्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्तौ प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत् प्रमाणमिति। तस्मादप्रामाण्यमपि परोक्षमित्यतो द्वयमपि परत इत्येष एव पक्षः श्रेयान् । न्यायम० पृ० १६०-१७४। कन्दली पृ०२१७-२२०। “प्रमायाः परतन्त्रत्वात् सर्गप्रलयसम्भवात् । तदन्यस्मिन्ननाश्वासान्न विधान्तरसम्भव: "-न्यायकु०२.२॥ तत्त्वचि० प्रत्यक्ष पृ०१५३-२३३।
२ "स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम् । न हि स्वतोऽसती शक्तिः कतु मन्येन शक्यते ॥"-श्लोकवा० सू०२. श्लो०४७।
३ श्लोकवा० सू० ३. श्लो० ८५।
४ "केचिदाहुयं स्वतः ।"-श्लोकवा० सू० २. श्लो० ३४३ तत्त्वसं० १० का० २८११. "प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वत: सांख्याः समाश्रिताः।"-सर्वद०जैमि० पृ०२७६ ।
५ "नहि बौद्ध रेषां चतुर्णामेकतमोऽपि पक्षोऽभीष्टोऽनियमपक्षस्येष्टत्वात्। तथाहि-उभयमप्येतत् किञ्चित् स्वतः किञ्चित् परतः इति पूर्वमुपवर्णितम् । अत एव पक्षचतुष्टयोपन्यासोऽप्ययुक्तः। पञ्चमस्याप्यनियमएक्षस्य संभवात् ।"-तत्त्वसं०प० का ३१२३ ।
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