Book Title: Pramana Mimansa Tika Tippan
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: ZZZ Unknown
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प्रमाणमीमांसाया:
[४० ४.६० १८श्वेताम्बर प्राचार्यों में भी आ० हेमचन्द्र की खास विशेषता है क्योंकि उन्होंने ग्रहीतग्राही और ग्रहोष्यमाणग्राही दोनों का समत्व दिखाकर सभी धारावाहिज्ञानों में प्रामाण्य का जो समर्थन किया है वह ख़ास मार्के का है।
पृ० ४. पं० १८. 'तत्रापूर्वार्थ'-तुलना-हेतुबि० टी० लि. पृ० ८७.
पृ० ४. पं० १६ 'ग्रहीष्यमाण'-'अनधिगत' या 'अपूर्व' पद जो धर्मोत्तर, अकलंक, माणिक्यनन्दी आदि के लक्षणवाक्य में है उसको प्रा० हेमचन्द्र ने अपने लक्षण में जब स्थान नहीं दिया तब उनके सामने यह प्रश्न आया कि 'धारावाहिक' और 'स्मृति' आदि ज्ञान जो अधिगतार्थक या पूर्वार्थक हैं और जिन्हें अप्रमाण समझा जाता है उनको प्रमाण मानते हो या
प्रप्रमाण ?। यदि अप्रमाण मानते हो तो सम्यगर्थनिर्णयरूप लक्षण प्रतिव्याप्त हो जाता है। 10 अतएव 'अनधिगत' या 'अपूर्व' पद लक्षण में रखकर 'अतिव्याप्ति' का निरास क्यों नहीं
करते ?। इस प्रश्न का उत्तर इस सूत्र में प्रा० हेमचन्द्र ने उक्त ज्ञानों का प्रामाण्य स्वीकार __ करके ही दिया है। इस सूत्र की प्रासादिक और अर्थपूर्ण रचना हेमचन्द्र की प्रतिभा और विचारविशदता की चोतिका है। प्रस्तुत अर्थ में इतना संक्षिप्त, प्रसन्न और सयुक्तिक वाक्य अभी तक अन्यत्र देखा नहीं गया।
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पृ० ४. पं० २०. 'द्रव्यापेक्षया' यद्यपि न्यायावतार की टीका में सिद्धर्षि ने भी अनधिगत विशेषण का खण्डन करते हुए द्रव्यपर्याय रूप से यहाँ जैसे ही विकल्प उठाये हैं तथापि वहाँ आठ विकल्प होने से एक तरह की जटिलता आ गई है। प्रा. हेमचन्द्र ने अपनी प्रसन्न और संक्षिप्त शैली में दो विकल्पों के द्वारा ही सब कुछ कह दिया है। तत्त्वोपप्लव' ग्रन्थ के
अवलोकन से और आ० हेमचन्द्र के द्वारा किये गये उसके अभ्यास के अनुमान से एक बात 20 कल्पना में आती है। वह यह कि प्रस्तुत सूत्रगत युक्ति और शब्दरचना दोनों के स्फुरण का
निमित्त शायद आ० हेमचन्द्र पर पड़ा हुआ तत्त्वोपप्लव का प्रभाव ही हो ।
पृ० ५.५० ७ 'अनुभयत्र'-संशय के उपलभ्य लक्षणों को देखने से जान पड़ता है कि कुछ तो कारणमूलक हैं और कुछ स्वरूपमूलक । कणाद, अक्षपाद और किसी बौद्ध-विशेष के
१. "तत्रापि सोऽधिगम्योऽर्थः किं द्रव्यम्, उत पर्यायो वा, द्रव्यविशिष्टपर्यायः, पर्यायविशिष्टं वा द्रव्यमिति, तथा कि सामान्यम्, उत विशेषः, श्राहोस्वित् सामान्यविशिष्टो विशेषः, विशेषविशिष्टं वा सामान्यम् इत्यष्टौ पक्षाः।" न्याया०सि० टी० पृ० १३.
२. "अन्ये तु अनधिगतार्थगन्तृत्वेन प्रमाणलक्षणमभिदधति. ते त्वयुक्तवादिनो द्रष्टव्याः। कथमयुक्तवादिता तेषामिति चेत्, उच्यते-विभिन्नकारकोत्पादितैकार्थविज्ञानानां यथाव्यवस्थितैकार्थगृहीतिरूपत्वाविशेषेपि पूर्वोत्पन्नविज्ञानस्य प्रामाण्यं नोत्तरस्य इत्यत्र नियामकं वसव्यम् । अथ यथावस्थितार्थगृहीतिरूपत्वाविशेषेपि पूर्वोत्पन्नविज्ञानस्य प्रामाण्यमुपपद्यते न प्रथमोत्तरविज्ञानस्य; तदा अनेनैव न्यायेन प्रथमस्याप्यप्रामाण्यं प्रसक्तम्, गृहीतार्थग्राहित्वाविशेषात् ।"-तत्त्वो०लि. पृ०३०.
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