________________
प्रमाणमीमांसायाः
[पृ० २. ५०/
के व्याख्याकार हैं। वह भाष्य तथा उसके आधारभूत सूत्र, पदार्थो के उद्देश एवं लक्षणात्मक हैं, उनमें परीक्षा का कहीं भी स्थान नहीं है जब कि वात्स्यायन के व्याख्येय मूल न्यायसूत्र ही स्वयं उद्देश, लक्षण और परीक्षाक्रम से प्रवृत्त हैं। त्रिविध प्रवृत्तिवाले शास्त्रों में तर्कप्रधान खण्डन-मण्डन प्रणाली अवश्य होती है-जैसे न्यायसूत्र उसके भाष्य 5 आदि में। द्विविध प्रवृत्तिवाले शास्त्रों में बुद्धिप्रधान स्थापनप्रणाली मुख्यतया होती है जैसे
कणादसूत्र, प्रशस्तपादभाष्य, तत्त्वार्थसूत्र, उसका भाष्य आदि। कुछ ग्रन्थ ऐसे भी हैं जो केवल उद्देशमात्र हैं जैसे जैनागम स्थानांग, धर्मसंग्रह आदि । श्रद्धाप्रधान होने से उन्हें मात्र धारणायोग्य समझना चाहिए।
मा० हेमचन्द्र ने वात्स्यायन का हो पदानुगमन करीब-करीब उन्हीं के शब्दों में 10 किया है।
शास्त्रप्रवृत्ति के चतुर्थ प्रकार विभाग का प्रश्न उठाकर अन्त में उद्योतकर ने न्यायवार्तिक में और जयन्त ने न्यायमन्जरी में विभाग का समावेश उद्देश में ही किया है। और त्रिविध प्रवृत्ति का ही पक्ष स्थिर किया है। प्रा. हेमचन्द्र ने भी विभाग के बारे में वही
प्रश्न उठाया है और समाधान भी वही किया है। 15 पृ० २. पं० १. 'उद्दिष्टस्य''लक्षण' का लक्षण करते समय प्रा. हेमचन्द्र ने 'असा
धारणधर्म' शब्द का प्रयोग किया है। उसका स्पष्टीकरण नव्यन्यायप्रधान तर्कसंग्रह . ... की टोका दीपिका में इस प्रकार है
__ " एतदूषणत्रय( अव्याप्त्यतिव्याप्त्यसंभव )रहितो धर्मो लक्षणम् । यथा · गोः सास्नादिमत्त्वम। स एवाऽसाधारणधर्म इत्युच्यते। लक्ष्यतावच्छेदकसमनियतत्वमसा20 धारणत्वम् "-पृ०१२ ।
__पृ० २. पं० १२. 'पूजितविचार'-वाचस्पति २ मिश्र ने 'मोमांसा' शब्द को पूजितविचारवाचक कहकर विचार की पूजितता स्पष्ट करने को भामती में लिखा है कि जिस विचार का फल परम पुरुषार्थ का कारणभूत सूक्ष्मतम अर्थनिर्णय हो वही विचार पूजित है।
प्रा० हेमचन्द्र ने वाचस्पति के उसी भाव को विस्तृत शब्दों में पल्लवित करके अपनी 'मीमांसा' 25 शब्द की व्याख्या में उतारा है, और उसके द्वारा 'प्रमाणमीमांसा' अन्य के समप्र मुख्य
प्रतिपाद्य विषय को सूचित किया है, और यह भी कहा है कि-'प्रमाणमीमांसा' प्रन्थ का उद्देश्य केवल प्रमाणों की चर्चा करना नहीं है किन्तु प्रमाण, नय और सोपाय बन्ध-मोक्ष इत्यादि परमपुरुषार्थोपयोगी विषयों की भी चर्चा करना है।
१ "त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिरित्युक्तम्, उद्दिष्टविभागश्च न त्रिविधायां शास्त्रप्रवृत्तापन्तर्भवतीति । तस्मादुद्दिष्टविभागो युक्तः, न; उद्दिष्टविभागस्याहश एवान्तर्भावात् । कस्मात् ? | लक्षणसामान्यात् । समानं लक्षणं नामधेयेन पदाथाभिधानमुद्दश इति ।"-न्यायवा०१.१.३. न्यायम० पृ. । २“पूजितविचारवचनो मीमांसाशब्दः । परमपुरुषार्थ हेतुभूतसूक्ष्मतमा मिर्शयफलता च विचारस्य पूजितता"-भामती०पू०२७.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org