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प्रमाणमीमांसायाः
[ पृ० १. पं०१८विषय सूचित हो और जिसमें ग्रन्थ का नामकरण भी आ जाय । जैसे पातञ्जल योगशास्त्र का प्रथम सूत्र है 'अथ योगानुशासनम्', जैसे अकलंक ने 'प्रमाण संग्रह' प्रन्थ के प्रारम्भ में 'प्रमाणे इति संग्रह:' दिया है, जैसे विद्यानन्द ने 'अथ प्रमाणपरीक्षा' इस वाक्य से ही 'प्रमाणपरीक्षा' का प्रारम्भ किया है । आ० हेमचन्द्र ने उसी प्रणाली का अनुसरण 5 करके यह सूत्र रचा है
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'थ' शब्द से शास्त्रप्रारम्भ करने की परम्परा प्राचीन और विविध विषयक शास्त्रगामिनी है । जैसे "प्रथाता दर्शपूर्णमासी व्याख्यास्यामः” ( आप० औ० सू० १. १. १. ), “अथ शब्दानुशासनम्" (पात० महा० ), 'अथातो धर्मजिज्ञासा' (जैमि० सू० १. १. १ ) इत्यादि । आ० हेमचन्द्र ने अपने काव्यानुशासन, छन्दोनुशासन की तरह इस ग्रन्थ में भी वही 10 परम्परा रक्खी है ।
पृ० १. पं० १८. 'अथ - इत्यस्य' - अथ शब्द का 'अधिकार' अर्थ प्राचीन समय से ही प्रसिद्ध है और उसे प्रसिद्ध आचार्यों ने लिया भी है जैसा कि हम व्याकरणभाष्य के प्रारम्भ में "अथेत्ययं शब्दोऽधिकारार्थः " ( १. १. १. १० ६ ) तथा योगसूत्रभाष्य में ( १. १. ) पाते हैं। इसके सिवाय उसका 'आनन्तर्य' अर्थ भी प्रसिद्ध है जैसा कि शबर ने अपने 15 मीमांसाभाष्य में लिया है । शङ्कराचार्य' ने 'आनन्वर्य' अर्थ तो लिया पर 'अधिकार' अर्थ को असङ्गत समझकर स्वीकृत नहीं किया । शङ्कराचार्य को अथ शब्द का 'मङ्गल' अर्थ लेना इष्ट था, पर एक साथ सीधे तौर से दो अर्थ लेना शास्त्रीय युक्ति के विरुद्ध होने से उन्होंने आनन्तर्यार्थक 'अथ' शब्द के श्रवण को ही मङ्गल मानकर 'मङ्गल' अर्थ लिये बिना ही, 'मङ्गल' का प्रयोजन सिद्ध किया है। योगभाष्य के और शाङ्करभाष्य के प्रसिद्ध 20 टीकाकार वाचस्पतिरे ने तत्ववैशारदी और भामती में शङ्करोक्त 'अथ' शब्दश्रुति की मङ्गलप्रयोजनता - मृदङ्ग, शङ्ख आदि ध्वनि के मांगलिक श्रवण की उपमा के द्वारा पुष्ट की है और साथ ही जलादि अन्य प्रयोजन के वास्ते लाये जानेवाले पूर्ण जलकुम्भ के मांगलिक दर्शन की उपमा देकर एक अर्थ में प्रयुक्त 'अथ' शब्द का अर्थान्तर बिना किये ही उसके श्रवण की माङ्गलिकता दरसाई है ।
१ " तत्र लोकेऽयमथशब्दा वृत्तादनन्तरस्य प्रक्रियार्थो दृष्टः " - शाबरभा० १.१.१.
२ “तत्राथशब्दः श्रानन्तर्यार्थः परिगृह्यते नाधिकारार्थः, ब्रह्मजिज्ञासाया अनधिकार्यत्वात्, मङ्गलस्य च वाक्यार्थे समन्वयाभावात् । अर्थान्तरप्रयुक्त एव ह्यथशब्दः श्रुत्या मङ्गलप्रयोजनो भवति” — ब्र० शाङ्करभा० १.१.१.
३ " अधिकारार्थस्य चाथशब्दस्यान्यार्थ नीयमानोदकुम्भदर्शनमिव श्रवणं मङ्गलायोपकल्पत इति मन्तव्यम्” – तत्त्ववै० ० १. १. " न चेह मङ्गलमथशब्दस्य वाच्यं वा लक्ष्यं वा, किन्तु मृदङ्गशङ्खध्वनिवदथशब्दश्रवणमात्रकार्यम् । तथा च 'कारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा । कराढं भित्त्वा विनिर्यातौ तस्मान्माङ्गलिकावुभौ ॥” अर्थान्तरेष्वानन्तर्यादिषु प्रयुक्तोऽथशब्दः श्रुत्या श्रवणमात्रेण वेणुवीणाध्वनिवन्मंगलं कुर्वन्, मङ्गलप्रयोजना भवति श्रन्यार्थमानीयमानोदकुम्भदर्शनवत्" - भामती १.१.१.
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